श्री अनन्तनाथ विधान

मंगलाचरण

श्री अनंतजिन स्तोत्र

-उपजाति छंद-

अनंत! दृग्ज्ञानसुवीर्यसौख्यं, अनन्ततां याति तव प्रसादात्।

अनंतदोषान् जिन! मे पुनीहि, नमाम्यनंतं हृदि धारये त्वाम्।।१।।

हे नाथ! अनंत गुणाकर तुम, साकेतपुरी में जन्म लिया।

जयश्यामा माँ सिंहसेन पिता ने, कीर्तिध्वजा को लहराया।।

कार्तिक वदि एकम गर्भ बसे, वदि ज्येष्ठ दुवादशि जन्मे थे।

इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, तप तपते वन वन घूमे थे।।२।।

चैत्री मावस में ज्ञानोत्सव, इस ही तिथि में प्रभु सिद्ध हुए।

दो सौ कर देह कनक कांति, प्रभु तीस लाख वत्सर१ थिति२ है।।

सेही लांछनयुत अंतकहर! हे देव अनंत! तुम्हें प्रणमूँ।

यह सब व्यवहार स्तुति भगवन्! निश्चय से गुण-गण को हि नमूँ।।३।।

यद्यपि ये कर्म अनादी से, मेरे संग बँधते आये हैं।

फिर भी अणुमात्र नहीं मुझमें, परिवर्तन करने पाये हैं।।

मैं सब प्रदेश में ज्ञानमयी, जड़कर्मों से क्या नाता है?

मैं हूँ चैतन्य अनंत गुणी, जड़ ही जड़ के निर्माता हैं।।४।।

यह निश्चयनय जब निश्चय से, ध्यानस्थ अवस्था पाता है।

तब कर्मों का कत्र्ता भोक्ता, नहिं होता बंध नशाता है।।

भगवन् ! तव चरण कमल सेवा, करते-करते यह फल पाऊँ।

अनुपम अनंत गुण के सागर, ‘कैवल्यज्ञानमति’ पा जाऊँ।।५।।

।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

भगवान श्री अनंतनाथ जिनपूजा

अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद

श्री अनंत जिनराज आपने, भव का अंत किया है।

दर्शन ज्ञान सौख्य वीरजगुण, को आनन्त्य किया है।।

अंतक का भी अंत करें हम, इसीलिए मुनि ध्याते।

आह्वानन कर पूजा करके, प्रभु तुम गुण हम गाते।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अथ अष्टक-अडिल्ल छंद

सरयूनदि को नीर कलश भर लाइये।

जिनवर पद पंकज में धार कराइये।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयज चंदन गंध सुगंधित लाइये।

तीर्थंकर पद पंकज अग्र चढ़ाइये।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

उज्ज्वल अक्षत मुक्ता फल सम लाइये।

जिनवर आगे पुंज चढ़ा सुख पाइये।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

वकुल कमल बेला चंपक सुमनादि ले।

मदनजयी जिनपाद पद्म पूजूँ भले।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

कलाकंद मोदक घृत मालपुआ लिये।

क्षुधाव्याधि क्षय हेतू आज चढ़ा दिये।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

घृतदीपक की ज्योति जले जगमग करे।

तुम पूजा तत्काल मोह तम क्षय करे।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अगर तगर सित चंदन आदि मिलाय के।

अग्नि पात्र में खेऊँ भाव बढ़ाय के।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अनंनास अंगूर आम आदिक लिये।

महामोक्षफल हेतु तुम्हें अर्पण किये।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।८।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंधादिक अर्घ्य लिया भर थाल में।

‘ज्ञानमती’ निधि हेतु जजूँ त्रयकाल में।।

भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूँ।

रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूँ।।९।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-

श्रीअनंत जिनराज के, चरणों धार करंत।

चउसंघ में भी शांति हो, समकित निधि विलसंत।।१०।।

शांतये शांतिधारा।

बेला कमल गुलाब ले, पुष्पांजली करंत।

मिले आत्म सुख संपदा, कटें जगत दु:ख फंद।।११।।

दिव्य पुष्पांजलि:।

पंचकल्याणक अर्घ्य

-सखी छंदसिंहसेन

अयोध्यापति थे, जयश्यामा गर्भ बसे थे।

कार्तिक वदि एकम तिथि में, प्रभु गर्भकल्याणक प्रणमें।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं कार्तिककृष्णाप्रतिपदायां श्रीअनंतनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि ज्येष्ठ वदी बारस में, सुर मुकुट हिले जिन जन्में।

अठ एक हजार कलश से, जिन न्हवन किया सुर हरषें।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि ज्येष्ठ वदी बारस थी, उल्का गिरते प्रभु विरती।

तप लिया सहेतुक वन में, पूजत मिल जावे तप मे।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वदि चैत अमावस्या के, पीपल तरु तल जिन तिष्ठे।

केवल रवि उगा प्रभू के, मैं जजूँ त्रिजग भी चमके।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां श्रीअनंतनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत आमावसी यम नाशा, शिवनारि वरी निज भासा।

सम्मेद शिखर को जजते, निर्वाण जजत सुख प्रगटे।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां श्रीअनंतनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णार्घ्य (दोहा)-

श्री अनंत भगवंत के, चरणकमल सुखकंद।

पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ परमानंद।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।

अथ प्रत्येक अर्घ्य (१०८ अर्घ्य)

-दोहा

सब कर्मों में एक ही, मोह कर्म बलवान।

उसके नाशन हेतु मैं, पूजूँ भक्ति प्रधान।।१।।

इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

-सोरठा-

‘महामुनी’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।

नाममंत्र तुम नाथ! पूजत ही सुखसंपदा।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामुनिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

मुनि हो मौन धरंत प्रभू ‘महामौनी’ तुम्हीं।

नाम मंत्र पूजंत, रोग शोक संकट टले।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामौनिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’ हुये।

नाममंत्र का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

पूर्ण जितेंद्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।

नाममंत्र तुम नाथ! पूजत आतम निधि मिले।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हं महादमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।

नाममंत्र नत शीश, पूजूँ मैं अतिभाव से।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाक्षमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।

पूरण हो गुण शील, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाशीलगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया।

‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ाय के।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हं महायज्ञगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।

पूजूँ भक्ति समेत, नाममंत्र प्रभु सुख मिले।।८।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामखगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।

जजूँ नमाकर शीश, नाममंत्र प्रभु आपके।।९।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रतपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधूगण नमें।

मिलें स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।१०।।

ॐ ह्रीं अर्हं मह्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महाकान्तिधर’ आप, अतिशय कांतिनिधान हो।

नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।११।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाकान्तिधरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

सब के स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।

नाशो सर्व अनिष्ट, नाममंत्र तुम पूजहूँ।।१२।।

ॐ ह्रीं अर्हं अधिपगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।

नाममंत्र तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।१३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामैत्रिमयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।

पूजत बनूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।१४।।

ॐ ह्रीं अर्हं अमेयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।

जजत सर्व सुखसाथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।१५।।

ॐ ह्रीं अर्हं महोपायगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

नाथ! ‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।

नाममंत्र तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।१६।।

ॐ ह्रीं अर्हं महोमयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महाकारुणिक’ आप, दया धर्म उपदेशिया।

नाम मंत्र का जाप्य, करत जन्म मृत्यू टले।।१७।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाकारुणिकगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।

जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।१८।।

ॐ ह्रीं अर्हं मंतागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।

तुम्हें नमें गणधीश, नाममंत्र मैं भी जजूँ।।१९।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामंत्रगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।

पूजत ही पद श्रेष्ठ, नाममंत्र को पूजहूँ।।२०।।

ॐ ह्रीं अर्हं महायतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।

नमत बनूँ निष्पाप, नाममंत्र भी मैं जजूँ।।२१।।

ॐ ह्रीं अर्हं महानादगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।

जजत मिले भवतीर, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।२२।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाघोषगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।

सौ इन्द्रों से मान्य, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।२३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महेज्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।

तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।२४।।

ॐ ह्रीं अर्हं महासांपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभू।

मिले सर्व सुखसार, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।२५।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाध्वरधरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

-दााग्विणी छंद-

‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।

कर्म-भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।

आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।

ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।२६।।

ॐ ह्रीं अर्हं धुर्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।

आप निग्र्रंथ भी इष्ट दातार हो।।आपके..।।२७।।

ॐ ह्रीं अर्हं महौदार्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।

दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आपके..।।२८।।

ॐ ह्रीं अर्हं महिष्ठवाक्गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।

अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आपके..।।२९।।

ॐ ह्रीं अर्हं महात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

सर्व तेजोमयी ‘महासांधाम’ हो।

आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।आपके..।।३०।।

ॐ ह्रीं अर्हं महासांधामगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महर्षी’ तुम्हीं।

ऋद्धी सिद्धी धरो आप सुख की मही।।

आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।

ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।३१।।

ॐ ह्रीं अर्हं महर्षिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

श्रेष्ठ भव धार के आप ‘महितोदया’।

तीर्थकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आपके..।।३२।।

ॐ ह्रीं अर्हं महितोदयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।

क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आपके..।।३३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाक्लेशांकुशगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।

नाथ! मेरे हरो कर्म आनन्द हो।।आपके..।।३४।।

ॐ ह्रीं अर्हं शूरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।

नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आपके..।।३५।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाभूतपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

आप ही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश दो।

तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आपके..।।३६।।

ॐ ह्रीं अर्हं गुरुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।

केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।

आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।

ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।३७।।

ॐ ह्रीं अर्हं महापराक्रमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।

नाथ! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आपके..।।३८।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।

सर्व दोषारि नाशा सुमृत्यू हना।।आपके..।।३९।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाक्रोधरिपुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।

आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आपके..।।४०।।

ॐ ह्रीं अर्हं वशीगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।

आप संसार सागर तरा तारते।।आपके..।।४१।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाभवाब्धिसंतारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय

अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।

मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बने।।आपके..।।४२।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामोहाद्रिसूदनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।

रत्नत्रय की खनी भव्य पूजूँ तुम्हें।।

आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।

ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।४३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महागुणाकरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘क्षान्त’ हो सर्व परिषह उपद्रव सहा।

आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आपके..।।४४।।

ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादी पती।

योगियों में धुरंधर जगत के पती।।आपके..।।४५।।

ॐ ह्रीं अर्हं महायोगीश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

हो ‘शमी’ शांत परिणाम से विश्व में।

पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।आपके..।।४६।।

ॐ ह्रीं अर्हं शमीगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।

शुक्ल परिणाम हों नाथ! वरदान दो।।आपके..।।४७।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘ध्यानमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करो।

शुभ अहिंसामयी धर्म के हो धुरी।।आपके..।।४८।।

ॐ ह्रीं अर्हं ध्यानमहाधर्मगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।

पूर्ण होवें महाव्रत बनूँ मुक्तिवर।।आपके..।।४९।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

हो ‘महाकर्मअरिहा’ महावीर हो।

कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आपके..।।५०।।

ॐ ह्रीं अर्हं महाकर्मारिहा-गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

-सुन्दरी छंद

जिन स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।

सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।

जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।

सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५१।।

ॐ ह्रीं अर्हं आत्मज्ञगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।

सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ..।।५२।।

ॐ ह्रीं अर्हं महादेवगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

महत समरथवान ‘महेशिता’।

सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ..।।५३।।

ॐ ह्रीं अर्हं महेशितागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।

सकल ज्ञान सुधामय साजिये।।जजतहूँ..।।५४।।

ॐ ह्रीं अर्हं सर्वक्लेशापहगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।

स्वपर हित साधन बतलावते।।

जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।

सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५।।

ॐ ह्रीं अर्हं साधुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘सरबदोषहरा’ जिन आप हो।

सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ..।।५६।।

ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदोषहरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।

प्रभु अनंतसुखाकर आप ही।।जजतहूँ..।।५७।।

ॐ ह्रीं अर्हं हरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।

गिन नहीं सकते गुण साधु भी।।जजतहूँ..।।५८।।

ॐ ह्रीं अर्हं असंख्येयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।

अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।जजतहूँ..।।५९।।

ॐ ह्रीं अर्हं अप्रमेयात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।

सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ..।।६०।।

ॐ ह्रीं अर्हं शमात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हो।

जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ..।।६१।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रशमाकरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘सरबयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।

गणधरादि नमावत शीश को।।

जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।

सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।६२।।

ॐ ह्रीं अर्हं सर्वयोगीश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

भुवन में तुम ईश ‘अचिन्त्य’ हो।

निंह किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ..।।६३।।

ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुत रूप हो।

सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ..।।६४।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रुतात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।

धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ..।।६५।।

ॐ ह्रीं अर्हं विष्टरस्वगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।

सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ..।।६६।।

ॐ ह्रीं अर्हं दान्तात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।

सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ..।।६७।।

ॐ ह्रीं अर्हं दमतीर्थेशगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

सकल ध्यात सु ‘योगात्मा’ तुम्हीं।

शुकल योगधरा जिन आपने।।

जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।

सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।६८।।

ॐ ह्रीं अर्हं योगात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।

जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ..।।६९।।

ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानसर्वगगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।

प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।जजतहूँ..।।७०।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रधानगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।

सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ..।।७१।।

ॐ ह्रीं अर्हं आत्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।

प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ..।।७२।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रकृतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।

परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ..।।७३।।

ॐ ह्रीं अर्हं परमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।

परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ..।।७४।।

ॐ ह्रीं अर्हं परमोदयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभु ‘प्रक्षीणाबंध’ जिनेश हो।

सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।

जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।

सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।७५।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रक्षीणबंधगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

-मोतीदाम छंद

प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।

किया तुम काम महाअरि विद्ध।।

जजूँ तुम नाम महा गुणखान।

भजूँ निज धाम अनन्त महान।।७६।।

ॐ ह्रीं अर्हं कामारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।

जगत् कल्याण किया सुखधाम।।जजूँ तुम.।।७७।।

ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमकृत्गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।

किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ तुम.।।७८।।

ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमसुशासनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।

सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।जजूँ तुम.।।७९।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रणवगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘प्रणत’ सबका तुम ही में प्रेम।

नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ तुम.।।८०।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रणतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत के त्राण।

दिया सब ही को जीवनदान।।

जजूँ तुम नाम महा गुणखान।

भजूँ निज धाम अनन्त महान।।८१।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्राणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! तुम ‘प्राणद’ बलदातार।

सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ तुम.।।८२।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्राणदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।

नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ तुम.।।८३।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रणतेश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘प्रमाण’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।

तुम्हें भवि पा होते भगवंत।।जजूँ तुम.।।८४।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रमाणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।

अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।जजूँ तुम.।।८५।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रणिधिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।

करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ तुम.।।८६।।

ॐ ह्रीं अर्हं दक्षगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।

सरल अतिशायि महागुणलीन।।जजूँ तुम.।।८७।।

ॐ ह्रीं अर्हं दक्षिणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।

महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।

जजूँ तुम नाम महा गुणखान।

भजूँ निज धाम अनन्त महान।।८८।।

ॐ ह्रीं अर्हं अध्वर्युगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।

सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ तुम.।।८९।।

ॐ ह्रीं अर्हं अध्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! तुम ही ‘आनंद’ अनूप।

मुझे सुखदेव सदा सुखरूप।।जजूँ तुम.।।९०।।

ॐ ह्रीं अर्हं आनंदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

सदा सबको आनंद करंत।

तुम्हीं प्रभु ‘नन्दन’ नाम धरंत।।जजूँ तुम.।।९१।।

ॐ ह्रीं अर्हं नन्दनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो तुम ‘नन्द’ समृद्ध निधान।

सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ तुम.।।९२।।

ॐ ह्रीं अर्हं नन्दगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।

सभी वंदन करते अनुकूल्य।।जजूँ तुम.।।९३।।

ॐ ह्रीं अर्हं वंद्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।

अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ तुम.।।९४।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनिंद्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।

प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।

जजूँ तुम नाम महा गुणखान।

भजूँ निज धाम अनन्त महान।।९५।।

ॐ ह्रीं अर्हं अभिनंदनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।

विषयविषमूच्र्छित को सुखकंद।।जजूँ तुम.।।९६।।

ॐ ह्रीं अर्हं कामहगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।

सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।जजूँ तुम.।।९७।।

ॐ ह्रीं अर्हं कामदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।

तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ तुम.।।९८।।

ॐ ह्रीं अर्हं काम्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।

करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेंद्र।।जजूँ तुम.।।९९।।

ॐ ह्रीं अर्हं कामधेनुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

‘अरिंजय’ आप करम अरि जीत।

हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ तुम.।।१००।।

ॐ ह्रीं अर्हं अरिंजयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

-पृथ्वी छंद-

‘वरप्रद’ जिनेशा एक वरदान दे दीजिये।

मिले तुरत सिद्धिधाम बस और ना चाहिये।।

जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।

मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०१।।

ॐ ह्रीं अर्हं वरप्रदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

जिनेश! यम नाश के ‘समुन्मूलिकर्मारि’ हो।

उखाड़ जड़मूल से करम शत्रु नाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।१०२।।

ॐ ह्रीं अर्हं समुन्मूलिकर्मारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

जिनेन्द्र! तुम ‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ लोक में।

समस्त अठ कर्म ईंधन जलावते अग्नि हो।।जजूँ.।।१०३।।

ॐ ह्रीं अर्हं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय

अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

समस्त शिव कार्य में निपुण आप ‘कर्मण्य’ हो।

प्रभो! निमित आप पाय सब कार्य मेरे बनें।।जजूँ.।।१०४।।

ॐ ह्रीं अर्हं कर्मण्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

समस्त कर्मारि के हनन में सुसामथ्र्य है।

अतेव ‘कर्मठ’ तुम्हीं सकल कार्य में दक्ष हो।।जजूँ.।।१०५।।

ॐ ह्रीं अर्हं कर्मठगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

समर्थ प्रभु आप ही सतत ‘प्रांशु’ सर्वोच्च भी।

समस्त अघ नाश के सकल सौख्य संपद् भरो।।जजूँ.।।१०६।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रांशुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति

स्वाहा।

जिनेश! बस आप ‘हेयआदेयवीचक्षण:’।

हिताहित विचारशील तुम सा नहीं अन्य है।।

जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।

मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०७।।

ॐ ह्रीं अर्हं हेयादेयविचक्षण:गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

समस्त जग जानते प्रभु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं।

अनंत गुण पूरिये हृदय में सदा राजिये।।जजूँ.।।१०८।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनंतशक्तिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं

निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद

प्रभु महामुनी से लेकर इक सौ आठ नाम तुम जग पूजें।

जो भक्ति वंदना नित्य करें वो भव भव के दुख से छूटें।।

मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके मेरी भव भव की व्याधि हरो।

प्रभु सात परम स्थान देय, जिनगुण संपत्ती पूर्ण करो।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं महामुनिआदि-अनंतशक्तिपर्यन्तशताष्टगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय

पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।

जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय नम:।

(९ बार या १०८ बार सुगंधित पुष्प या पीले चावल से जाप्य करें)

जयमाला

-बसंततिलका छंद

देवाधिदेव तुम लोक शिखामणी हो।

त्रैलोक्य भव्यजन कंज विभामणी हो।।

सौ इन्द्र आप पद पंकज में नमे हैं।

साधू समूह गुण वर्णन में रमे हैं।।१।।

जो भक्त नित्य तुम पूजन को रचावें।

आनंद कंद गुणवृंद सदैव ध्यावें।।

वे शीघ्र दर्शनविशुद्धि निधान पावें।

पच्चीस दोष मल वर्जित स्वात्म ध्यावें।।२।।

नि:शंकितादि गुण आठ मिले उन्हीं को।

जो स्वप्न में भि हैं संस्मरते तुम्हीं को।।

शंका कभी नहिं करें जिनवाक्य में वो।

कांक्षें न ऐहिक सुखादिक को कभी वो।।३।।

ग्लानी मुनी तनु मलीन विषे नहीं है।

नाना चमत्कृति विलोक न मूढ़ता है।।

सम्यक्चरित्र व्रत से डिगते जनों को।

सुस्थिर करें पुनरपी उसमें उन्हीं को।।४।।

अज्ञान आदि वश दोष हुए किसी के।

अच्छी तरह ढक रहें न कहें किसी से।।

वात्सल्य भाव रखते जिनधर्मियों में।

सद्धर्म द्योतित करें रुचि से सभी में।।५।।

वे द्वादशांग श्रुत सम्यग्ज्ञान पावें।

चारित्र पूर्ण धर मनपर्यय उपावें।।

वे भक्त अंत बस केवलज्ञान पावें।

मुक्त्यंगना सह रमें शिवलोक जावें।।६।।

गणधर जयादिक पचास समोसृती में।

छ्यासठ हजार मुनि संयमलीन भी थे।।

थी सर्वश्री प्रमुख संयतिका वहाँ पे।

जो एक लाख अरु आठ हजार प्रमिते।।७।।

दो लाख श्रावक चतुर्लख श्राविकाएँ।

संख्यात तिर्यक् सुरादि असंख्य गायें।।

उत्तुंग देह पच्चास धनू बताया।

है तीस लाख वर्षायु मुनीश गाया।।८।।

‘‘सेही’’ सुचिन्ह तनु स्वर्णिम कांति धारें।

वंदूँ अनंत जिन को बहु भक्ति धारें।।

पूजूँ नमूँ सतत ध्यान धरूँ तुम्हारा।

संपूर्ण दु:ख हरिये भगवन्! हमारा।।९।।

हे नाथ! कीर्ति सुन के तुम पास आया।

पूरो मनोरथ सभी जो साथ लाया।।

सम्यक्त्व क्षायिक करो सुचरित्र पूरो।

कैवल्य ‘ज्ञानमति’ दे, यम पाश चूरो।।१०।।

-दोहा

तुम पद आश्रय जो लिया, सो पहुँचे शिवधाम।

इसीलिए तुम चरण में, करूँ अनंत प्रणाम।।११।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।

-शंभु छंद

जो श्री अनंत तीर्थंकर का पूजन विधान रुचि से करते।

वे सांसारिक अनंत दुख से, छुट जाते सर्व सौख्य लभते।।

निज ‘ज्ञानमती’ कैवल्य करें, आनन्त्य चतुष्टय को पाते।

निज के अनंतगुण पूर्ण करें, फिर सिद्धशिला को पा जाते।।१।।

।।इत्याशीर्वाद:।।

बड़ी जयमाला

-सोरठा

श्री अनंत जिनराज, अनंतगुण के प्रभु धनी।

नमूॅँ नमाकर माथ, गाऊँ गुणमणिमालिका।।१।।

-नरेन्द्र छंद

जयजय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।

जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।

प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।

बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।२।।

धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।

मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।

उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।

आसपास के कुंड नीर में, पग धोती जनता है।।३।।

प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।

खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।

वनभूमी के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।

कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अति महिमा।।४।।

ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएँ, लहर लहर लहरायें।

भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।

श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।

पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।५।।

गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।

प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।

सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु माने।

नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदु:ख हानें।।६।।

चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन, चिच्चैतन्य सुधाकर।

जय जय चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतितप्रद रत्नाकर।।

आप अलौकिक कल्पवृक्ष प्रभु, मुंहमांगा फल देते।

आप भक्त चक्री सुरपति, तीर्थंकर पद पा लेते।।७।।

जो तुम चरण सरोरुह पूजें, जग में पूजा पावें।

जो जन तुमको चित में ध्याते, सब जन उनको ध्यावें।।

जो तुम वचन सुधारस पीते, सब उनके वच पालें।

जो तुम आज्ञा पालें भविजन, उन आज्ञा नहिं टालें।।८।।

जो तुम सन्मुख भक्ति भाव से, नृत्य करें हर्षित हो।

तांडव नृत्य करें उन आगे, सुरपति भी प्रमुदित हो।।

जो तुम गुण को नित्य उचरते, भवि उनके गुण गाते।

जो तुम सुयश सदा विस्तारें, वे जग में यश पाते।।९।।

मन से भक्ति करें जो भविजन, वे मन निर्मल करते।

वचनों से स्तुति को पढ़कर, वचन सिद्धि को वरते।।

काया से अंजलि प्रणमन कर, तन का रोग नशाते।

त्रिकरण शुचि से वंदन करके, कर्म कलंक नशाते।।१०।।

बहुविध तुम यश आगम वर्णे, श्रवण किया मैं जब से।

तुम चरणों में प्रीति लगी है, शरण लिया मैं तब से।।

नाथ अनंत! कृपा ऐसी अब, मुझ पर तुरतहिं कीजे।

‘‘सम्यग्ज्ञानमती’’ लक्ष्मी को, देकर निज सम कीजे।।११।।

-दोहा

श्री अनंत तीर्थेश जिन! पंचकल्याणक ईश।

नमूँ नमूँ तुमको सदा, श्रद्धा से नत शीश।।९।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।

-शंभु छंद

जो श्री अनंत तीर्थंकर का पूजन विधान रुचि से करते।

वे सांसारिक अनंत दुख से, छुट जाते सर्व सौख्य लभते।।

निज ‘ज्ञानमती’ कैवल्य करें, आनन्त्य चतुष्टय को पाते।

निज के अनंतगुण पूर्ण करें, फिर सिद्धशिला को पा जाते।।१।।

।।इत्याशीर्वाद:।।

प्रशस्ति

-दोहा-

ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर भगवान।

श्री अनंत तीर्थेश को, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।१।।

मूलसंघ में कुन्दकुन्द-अन्वय सरस्वति गच्छ।

बलात्कारगण में हुए, सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।२।।

सदी बीसवीं के प्रथम गुरु महान आचार्य।

चरित चक्रवर्ती श्री-शांतिसागराचार्य।।३।।

इनके पहले शिष्य श्री-वीरसागराचार्य।

प्रथमहि पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।४।।

वीर अब्द पच्चीस सौ, उनतालिस जग ख्यात।

सित षष्ठी वैशाख की, मंगलमयी प्रभात।।५।।

श्री अनंत जिनराज का यह विधान सुखकार।

गणिनी ज्ञानमती किया पूर्ण भक्ति उर धार।।६।।

जब तक नहिं हो ‘ज्ञानमति’ केवल एक महान्।

नहिं अनंत गुण पूर्ण हो, तब तक हो प्रभु ध्यान।।७।।

श्री अनंत जिन टोंक पर, निर्मापित जिनसद्म।

श्री अनंत प्रभु मूर्ति है, सवा दश फुट तुंग।।८।।

प्रथम अयोध्या तीर्थ पर, होगा पंचकल्याण।

इसी हेतु मैंने रचा, अतिशयकारि विधान।।९।।

जिनमंदिर जिनमूर्ति के, निर्माता जन भव्य।

प्रेरक कारक सर्व जन, नित सुख पावें नव्य।।१०।।

जब तक शाश्वत तीर्थ यह, तब तक रहे विधान।

तीर्थंकर भगवंत का, भव्य करें गुणगान।।११।।

।।इति प्रशस्ति समाप्ता।।

तीर्थंकर जन्मभूमि वंदना

(मंगलचतुर्विंशतिका)

-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी

-अनुष्टुप् छंद-

अयोध्या मंगलं कुर्या-दनन्ततीर्थकर्तृणाम्।

शाश्वती जन्मभूमिर्या, प्रसिद्धा साधुभिर्नुता।।१।।

ऋषभोऽजिततीर्थेशोऽप्यभिनंदनतीर्थकृत्।

श्रीमान् सुमतिनाथश्चा - नन्तनाथजिनेश्वर:।।२।।

पंचतीर्थकृतां गर्भ - जन्मकल्याणकादिषु।

इन्द्रादिभि: सदा वंद्या, वंद्यते वंदयिष्यते।।३।।

संप्रति कालदोषेण शेषास्तीर्थंकरा: पृथक्।

संजातास्ता अपिजन्म-भूमयो मंगलं भुवि।।४।।

श्रावस्ती मंगलं कुर्यात्, संभवनाथजन्मभू:।

तनुतान्मे मनःशुद्धिं, भव्यानां भवहारिणी।।५।।

कौशाम्बी मंगलं कुर्यात्, पद्मप्रभस्य जन्मभू:।

जिनसूर्यो मनोऽब्जं मे, प्रपुâल्लीकुरुतादपि।।६।।

वाराणसी जगन्मान्या, मंगलं तनुतान्मम।

जन्मभूमि: सुरै: पूज्या, सुपाश्र्वपार्श्वनाथयो:।।७।।

चन्द्रपुरी सुरैर्मान्या, मंगलं कुरुतात्सदा।

चन्द्रप्रभजिनेंद्रस्य, जन्मभूर्जन्मपावनी।।८।।

कावंâदी मंगलं कुर्यात्, पुष्पदन्तस्य जन्मभू:।

आनंदं तनुताद् भूमौ, सर्वमंगलकारिणी।।९।।

मंगलं कुरुतान्नित्यं, जन्मभूर्भद्रकावती।

शीतलस्य जिनेंद्रस्य, मनो मे शीतलं क्रियात्।।१०।।

सिंहपुरी जगन्मान्या, मंगलं कुरुतान्मम।

श्रीश्रेयांसजिनेंद्रस्य, जन्मभूमि: शिवंकरा।।११।।

चंपापुरी जगद्वंद्या, मंगलं तनुताद् ध्रुवं।

वासुपूज्यजिनेंद्रस्य, जन्मभूमिर्नुतामरै:।।१२।।

सा वंâपिलापुरी नित्यं, मंगलं कुरुतान्मम।

मच्चित्तं विमलीकुर्यात्, विमलेश्वरजन्मभू:।।१३।।

रत्नपुरी यतीन्द्राणां, मंगलं कुरुताच्च न:।

सद्धर्मवृद्धये भूयाद्, धर्मनाथस्य जन्मभू:।।१४।।

हस्तिनागपुरी नित्यं, मंगलं तनुतान्मम।

शांतिकुंथ्वरतीर्थेशां, जन्मभूमिर्जगन्नुता।।१५।।

या मिथिलापुरी शश्वत्, मंगलं कुरुतान्मम।

जन्मभूमि: प्रसिद्धाभूत्, मल्लिनाथनमीशयो:।।१६।।

मंगलं संततं कुर्यात्, राजगृही सुजन्मभू:।

मुनिसुव्रतनाथस्य, दद्यान्मे सुव्रतं त्वसौ।।१७।।

शौरीपुर्यद्र्धचक््रयाद्यै:, मान्या मे मंगलं क्रियात्।

इन्द्रादिभि: सदा वंद्या, नेमिनाथस्य जन्मभू:।।१८।।

या कुण्डलपुरी पूज्या, मंगलं कुरुताद् भुवि।

जन्मभूमि: प्रसिद्धास्ति, महावीरस्य संप्रति।।१९।।

राजधानीह सिद्धार्थ-भूपते: साधुभिर्नुता।

नंद्यावर्तं च प्रासादं, रत्नवृष्ट्या सुमंगलम्।।२०।।

चतुर्विंशतितीर्थेशां, षोडश जन्मभूमय:।

वंद्यास्ता मंगलं कुर्यु:, घ्नन्तु जन्मपरम्परां।।२१।।

दीक्षाज्ञानस्थलं पूज्यं, प्रयागश्चाहिच्छत्रवंâ।

संततं मंगलं कुर्यात्, पूर्णज्ञानद्र्धये भवेत् ।।२२।।

कैलाशचंपापावोर्ज-यन्तसम्मेदशृंगिषु।

निर्वाणभूमयो यास्ता:, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।२३।।

पंचकल्याणकै: पूज्या, भूमिसरोवराद्रय:।

तास्तान् ज्ञानमती याचे, दद्यु: सिद्धिं च मे धु्रवम्।।२४।।

भगवान श्री अनंतनाथ की आरती

-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

तर्ज—करती हूँ तुम्हारी पूजा......

करते हैं प्रभू की आरति, आतमज्योति जलेगी।

प्रभुवर अनंत की भक्ती, सुख का दााोत भरेगी।।

हे त्रिभुवन स्वामी, हे अन्तर्यामी।।टेक.।।

हे सिंहसेन के राजदुलारे, जयश्यामा प्यारे।

साकेतपुरी के नाथ, अनंत गुणाकर तुम न्यारे।।

तेरी भक्ती से हर प्राणी में शक्ति जगेगी,

प्रभुवर अनंत की भक्ती, सुख का दााोत भरेगी।। हे.....।।१।।

वदि ज्येष्ठ द्वादशी मेें प्रभुवर, दीक्षा को धारा था,

चैत्री मावस में ज्ञानकल्याणक उत्सव प्यारा था।

प्रभु की दिव्यध्वनि दिव्यज्ञान आलोक भरेगी।।प्रभुवर ..........।।२।।

सम्मेदशिखर की पावन पूज्य धरा भी धन्य हुई

जहाँ से प्रभु ने निर्वाण लहा, वह जग में पूज्य कही।

उस मुक्तिथान को प्रणमूँ, वांछित पूर्ण करेगी।।प्रभुवर ..........।।३।।

सुनते हैं तेरी भक्ती से, संसार जलधि तिरते,

हम भी तेरी आरति करके, भव आरत को हरते।

‘‘चंदनामती’’ क्रम-क्रम से, इक दिन मुक्ति मिलेगी।। प्रभुवर......।।४।।

अयोध्या तीर्थ की आरती

-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

तर्ज—चांद मेरे आ जा रे ................

आरती तीर्थ अयोध्या की-२

तीर्थंकरों की, जन्मभूमि यह, सब मिल करो आरतिया।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।टेक.।।

शाश्वत यह पुरी अयोध्या, जग में जानी जाती है।

सम्मेदशिखर के सदृश, पावन मानी जाती है।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।१।।

यूं तो इस भू पर सारे, तीर्थंकर सदा जनमते।

लेकिन इस युग में जन्में, तीर्थंकर पंच परम थे।।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।२।।

श्री ऋषभ अजित अभिनंदन, सुमती अनंत जी जन्मे।

उन्नीस शेष तीर्थंकर, सब अलग-अलग ही जन्मे।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।३।।

तीरथ की पावन रज को, मस्तक पर धारण कर लो।

इसकी आरति कर अपने, कष्टों का निवारण कर लो।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।४।।

आदीश्वर की खड्गासन, प्रतिमा को नमन करें हम।

‘‘चंदनामती’’ इस शाश्वत, तीरथ को नमन करें हम।।

आरती तीर्थ अयोध्या की।।५।।

श्री अनन्तनाथ भगवान के शासन देव की आरती

-ब्र. कु. इन्दु जैन (संघस्थ)

तर्ज-मैं तो भूल चली.............

माता वैरोटी की सब आज मिलकर आरति करें।

जिनशासन की....जिनशासन की हैं रक्षिका, सब मिल आरति करें।।टेक.।।

चौदहवें तीर्थंकर जग में कहाए,

उन अनन्त प्रभुवर को जो मन में ध्याए,

उसकी मनवांछा पूरो तुम मात मिलकर आरति करें।।माता..।।१।।

किन्नर यक्ष की प्रियकारिणी हो,

माता अतुल शक्ति की धारिणी हो।

तुम हो संकटनिवारक मात मिलकर आरति करें।माता..।।२।।

हो सम्यग्दृष्टी तेरी छवि है प्यारी,

हर आशा पूरो तव आरति उतारी।

‘इन्दु’ जिनभक्ति करूं दिन रात, मिलकर आरति करें।माता..।।३।।

श्री अनन्तनाथ भगवान की शासन देवी की आरती

-ब्र. कु. इन्दु जैन (संघस्थ)

तर्ज - चांद मेरे आ जा रे.............

करो सब मिलकर आरतिया-२

किन्नर यक्ष हैं, अनन्तप्रभु के, सम्यग्दृष्टि देवा, करो सब मिलकर आरतिया।।टेक.।।

जो अनन्तप्रभु को सच्चे मन से नित उर में लाते।

मनवांछित फल को पाकर, जीवन को सुखी बनाते।।करो सब....।।१।।

वैरोटी यक्षी के तुम, प्रियकारक देव कहाए।

भय रोग शोक दुखनाशक, संकट को दूर भगाएं।।करो सब....।।२।।

हैं धर्मप्रभावन तत्पर, मंगलमय सब सुखदाता,

जिनभक्तों के हैं रक्षक, धन सुख सम्पत्ति प्रदाता।।करो सब....।।३।।

हे किन्नर देव हमारी, बस इक अभिलाषा पूरो।

शिवधाम प्राप्ति तक ‘इन्दू’ जिनधर्म में तत्पर रखो।।करो सब.....।।४।।

भजन

-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

भजन १

सरयू के तट पर बन गया है,

जिनमंदिर निराला।

मंदिर निराला, अयोध्या में प्यारा............

सरयू के तट पर बन गया है,

जिनमंदिर निराला।।टेक.।।

जिनवर अनन्तनाथ का मंदिर,

जन्मस्थली जहाँ है टोंक सुन्दर।

भक्तों ने वहीं पे बनाया है,

जिनमंदिर निराला।।सरयू.।।१।।

मूंगा मणी सम प्रतिमा विराजीं,

मंद मंद वे हैं मुस्करातीं।

सबके हृदय को भाया है,

जिनमंदिर निराला।।सरयू.।।२।।

ऋषभदेव उद्यान निकट में,

जिन संस्कृति को कहता है जग में।

उपहार में जग ने पाया है,

जिनमंदिर निराला।।सरयू.।।३।।

गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी,

चन्दनामती ये प्रेरणादात्री।

तभी तीर्थ ने नया पाया है,

जिनमंदिर निराला।।सरयू.।।४।।

भजन २

तर्ज—धीरे-धीरे बोल कोई सुन ना ले......

प्रभु अनन्तनाथ जन्मभूमि को नमूँ,

भूमि को नमूँ, जन्मभूमि को नमूँ।।

शुभ तीर्थ अयोध्या धाम है, जहाँ मंदिर बना महान है।।प्रभु अनन्त.।।टेक.।।

माता जयश्यामा को स्वप्न दिखे जहाँ,

सिंहसेन पितु दान किमिच्छक दें जहाँ।

धनकुबेर ने रत्नवृष्टि की थी जहाँ,

उत्सव करने इन्द्र स्वयं आये जहाँ।।

उस तीर्थ को, वन्दन करो-२,

शुभ तीर्थ अयोध्या धाम है, जहाँ मंदिर बना महान है।।प्रभु अनन्त.।।१।।

गणिनी माता ज्ञानमती की प्रेरणा,

पाकर तीरथ में आई नवचेतना।

धरती का यदि स्वर्ग तुम्हें है देखना,

इसकी छवि ‘‘चंदनामती’’ बस देखना।।

उस तीर्थ को, वंदन करो-२

शुभ तीर्थ अयोध्या धाम है, जहाँ मंदिर बना महान है।।प्रभु अनन्त.।।२।।

भजन ३

तर्ज-माई रे माई..........

शाश्वत तीर्थ अयोध्या में फिर, गूँज उठी शहनाई।

कुछ ही वर्षों बाद जहाँ, खुशियों की बेला आई।।

शाश्वत जन्मभूमि की जय, जिनवर जन्मभूमि की जय.।।टेक.।।

तीर्थ अयोध्या पुण्यभूमि है, पाँच प्रभू जहाँ जनमे।

जयश्यामा अरु सिंहसेन जी, हर्षित हैं निज मन में।।

इन्द्रों की टोली स्वर्गों से, इसी धरा पर आई।

कुछ ही वर्षों बाद जहाँ, खुशियाँ की बेला आई।।

शाश्वत जन्मभूमि की जय, जिनवर जन्मभूमि की जय.।।१।।

गणिनी ज्ञानमती माता की, मिली प्रेरणा सबको।

जीर्णोद्धार विकास तीर्थ का, करो कराओ भक्तों।।

इसी भावना के कारण, उत्सव की घड़ियाँ आर्इं।

कुछ ही वर्षों बाद जहाँ, खुशियों की बेला आई।।

शाश्वत जन्मभूमि की जय, जिनवर जन्मभूमि की जय.।।२।।

तीर्थंकर प्रभु सर्व अरिष्ट, निवारक माने जाते।

भौतिक सम्पति पाने हेतू, भक्त शरण में आते।।

इसीलिए ‘‘चंदनामती’’, उन प्रभु की महिमा गाई।

कुछ ही वर्षों बाद जहाँ, खुशियों की बेला आई।।

शाश्वत जन्मभूमि की जय, जिनवर जन्मभूमि की जय.।।३।।

भजन ४

तर्ज—मेरे अंगने में......

अनन्तनाथ प्रभु का जनम हुआ आज है।

अयोध्या में खुशियों का छाया साम्राज्य है।। टेक.।।

अयोध्या की धरती रतनमयी हो रही।

पन्द्रह महिने से यहाँ रत्नवृष्टि हो रही ।।

सारे नर नारी-२, करें जयकार हैं।। आदिनाथ......।।१।।

पूर्व दिशा सूरज को पाकर लाल हुई।

माता तीर्थंकर को पाके निहाल हुई।।

स्वर्गों में भी बाजे-२, बजे शंखनाद है।। आदिनाथ......।।२।।

नरकों में भी क्षण भर को शांति मानो छा गई।

सारी धरती ‘चंदनामती’ बधाई गा रही।

मानो आज सबको-२, मिला साम्राज्य है।। आदिनाथ......।।३।।

भजन ५

तर्ज—दिल्ली का कुतुबमीनार देखो....

देखो देखो देखो, जन्मभूमि देखो,

अनन्तनाथ टोंक का विकास देखो, अयोध्यापुरी का प्रकाश देखो।

सारे जगत में इस तीर्थ का, फैला है नाम तुम आज देखो।।

हो देखो देखो, अयोध्या देखो-२ ।।टेक.।।

कहते हैं जिनशासन का, पहला शाश्वत तीर्थ यही।

तीर्थंकर भगवन्तों के, जन्म सदा होते हैं यहीं।।

उनकी ही महिमा का सार देखो, तीरथ अयोध्या विकास देखो।

सारे जगत में इस तीर्थ का, फैला है नाम तुम आज देखो।।

हो देखो देखो, अयोध्या देखो.।।१।।

वर्तमान चौबीसी के, पाँच तीर्थंकर जन्मे हैं।

उनके पाँचों टोंक यही, पुण्य कथानक कहते हैं।।

उन सबका होगा विकास देखो, जिनवर के गुण का प्रकाश देखो।

सारे जगत में इस तीर्थ का, फैला है नाम तुम आज देखो।।

हो देखो देखो, अयोध्या देखो.।।२।।

ज्ञानमती माताजी की, मिली प्रेरणा है सबको।

शाश्वत तीर्थ अयोध्या का, खूब प्रचार करो भक्तों।।

‘‘चन्दनामती’’ यह प्रयास देखो, जिनमत का होगा प्रकाश देखो।

सारे जगत में इस तीर्थ का, फैला है नाम तुम आज देखो।।

हो देखो देखो, अयोध्या देखो.।।३।।

भजन ६

तर्ज-मेरी तो पतंग कट गई रे..............

प्रभु तीर्थनाथ का, श्री अनन्तनाथ का, मस्तकाभिषेक हो रहा है,

प्रभु का जयजयकार हो रहा है।।टेक.।।

आदितीर्थ अयोध्यापुरी में।

अनन्तनाथ जनम की नगरी में।।

उन प्रभु की है विशाल प्रतिमा।

तीर्थ अयोध्या की है जो गरिमा।।

उन्हीं तीर्थनाथ का, श्री अनन्तनाथ का, मस्तकाभिषेक हो रहा है,

प्रभु का जयजयकार हो रहा है।।१।।

गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माता।

अयोध्या पधारीं सुनो गाथा।।

मस्तकाभिषेक प्रथा डाली।