बारह भावना (कविवरभूधरदास कृत)
दोहा
राजा राणा छत्रपति, हाथिनके असवार।
मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार।।1।।
दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार।
मरती बिरियां जीवको, कोई न राखन हार।।2।।
दाम विना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान।
कहुँ न सुख संसारमें, सब जग देख्यो छान।।3।।
आप अकेलो अवतरे, मरै अकेलो होय।
यूं गबहूँ इस जीवको, साथ सगा न कोय।।4।।
जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपनो कोय।
घर सम्पत्ति पर प्रकट ये, पर है परिजन लोय।।5।।
दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड पींजरा देह।
भीतर या सम जगतमें, अवर नहीं घिन गेह।।6।।
सोरठा - मोह निंदके जोर, जगवासी घमै सदा।
कर्म चोर चहुँ ओर, सरवस लुटैं सुध नहीं।।7।।
सत गुरु देय जगाय, मोह नींद जब उपशमै।
तब कुछ बने उपाय, कर्म चोर आवत रुकै।।8।।
दोहा
ज्ञान दीप तब तेल भर, घर शोघै भ्रम छोर।
या विधि विन निकसैं नहिं, पैठे पूरव चोर।।9।।
पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार।
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार।।10।।
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष-संठान।
तामें जीव अनादि तें, भरमत है बिन ज्ञान।।11।।
धनकनकंचनराज सुख, सबहि सुलभकरजान।
दुर्लभ है संसारमें, एक जथारथ ज्ञान।।12।।
जांचे सुर तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन।
बिन जांचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन।।13।।