शरीराष्टक

शार्दूलविक्रीडित छंद

दुर्गंधाशुचिधातुभित्तिकलितं संछादितं चर्मणा विण्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसद्दु:खाखुभिश्छिद्रितम्।

क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जरावह्निना चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते।।१।।

अर्थ —यह शरीररूपी झोंपड़ा दुर्गंध तथा अपवित्र वीर्य आदि धातुरूपी भीतों से बना हुआ है और चाम से ढका हुआ है तथा विष्टा मूत्र आदि से भी भरा हुआ है और इसमें क्षुधा आदिक बलवान दु:खरूपी चूहों ने छेदकर रखे हैं और यह अत्यन्त क्लिष्ट है और इसके चारों ओर जरारूपी अग्नि मौजूद है तो भी मूर्ख जीव इसको स्थिर तथा अत्यन्त पवित्र मानता है यह बड़े आश्चर्य की बात है।।१।।

दुर्गन्ध कृमिकीटजालकलितं नित्यं स्रवद्दूरसं शौचस्नानविधानवारिविहितप्रक्षालनं रुग्भृतम्।

मानुष्यं वपुराहुरुन्नतधियो नाडीव्रणं भेषजं तत्रान्नं वसनानि पट्टकमहो तत्रापि रागी जन:।।२।।

अर्थ —दुर्गन्धमय तथा लट और कीड़ाओं के समूह कर व्याप्त और जिसमें चारों ओर से रक्त, पीब, आदि बह रहे हैं और जिसका प्रक्षालन पवित्र जल से किया जाता है और जो नाना प्रकार के रोगों कर व्याप्त है और जिसमें औषधि अन्न और वस्त्ररूपी पट्टी है ऐसे मनुष्य के शरीर को उच्च बुद्धि के धारक मनुष्य नाडीव्रण (घाव) कहते हैं तो भी बड़े आश्चर्य की बात है ऐसे निकृष्ट शरीर में भी जीव रागी बनते हैं।

भावार्थ —जिस प्रकार घाव अत्यन्त दुर्गन्धमय होता है और नाना प्रकार के लट कीड़े आदिक से व्याप्त होता है और सदा जिसमें रक्त आदि टपकता रहता है और अत्यन्त शुद्ध जल से धोया जाता है तथा जिसके ऊपर औषधि लगाई जाती है तथा पट्टी बांधी जाती है उसी प्रकार यह शरीर भी है क्योंकि यह भी नाना प्रकार की दुर्गंधों से व्याप्त है तथा इसमें भी नाना प्रकार के कीड़े मौजूद हैं और लोहू पीव आदिक घृणा के करने वाले रस भी इससे सदा बहते रहते हैं और उत्तम जल से भी इसका स्नान कराया जाता है तथा नाना प्रकार के भयंकर रोगों का भी यह घर है अन्नरूपी औषधि भी इसके उपयोग में लाई जाती है और वस्त्ररूपी पट्टी भी इस पर बांधी जाती है परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे निकृष्ट शरीर में भी मनुष्य राग करता है ? और इसको खराब नहीं मानता है।।२।।

आचार्यवर कहते है--

नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा वपूंषि सर्वाशुचिभांजि निश्चितम्।

तत: क एतेषु बुध: प्रपद्यते शुचित्वमम्बुस्तुतिचंदनादिभि:।।३।।

अर्थ —मनुष्यों के समस्त शरीर सदाकाल सब प्रकार से अपवित्र हैं ऐसा भलीभांति निश्चित है इसलिये संसार में ऐसा कौन सा बुद्धिमान पुरुष होगा जो इस शरीर को स्नान से तथा चंदन से पवित्र करने का प्रयत्न करेगा।

भावार्थ —यदि मनुष्य का शरीर किसी प्रकार से तथा किसी काल में पवित्र होता तब तो स्नानों से तथा चंदनों के लेप से इसका पवित्र करना मनुष्यों का फलप्रद समझा जाता परन्तु यह शरीर तो न किसी प्रकार से शुद्ध हो सकता है और न किसी काल में पवित्र हो सकता है इसलिये जो मनुष्य वास्तविक रीति से शरीर को दशा को जानने वाले हैं ऐसे वे विद्वान पुरुष कभी भी स्नान तथा चंदनादि के लेपों से शरीर को शुद्ध बनाने का प्रयत्न नहीं करते।।३।।

तिक्तेश्वाकुफलोपेमं वपुरिदं नैवोपभोग्यं नूणां स्याच्चेन्मोहकुजन्मरन्धूरहितं शुष्कं तपोधर्मत:।

नांते गौरवितं तदा भवनदीतीरे क्षमं जायते तत्तत्तत्र नियोजितं वरमथासारं सदा सर्वथा।।४।।

रचनाकार विचार करते हैं--

अर्थ —मनुष्यों का शरीर कड़वी तूमड़ी के समान है इसलिये वह सर्वथा उपयोग करने के योग्य नहीं है यदि यही शरीर मोह तथा खोटे जन्मरूपी छिद्रों कर रहित होवे और तपरूपी धूप से सूखा हुआ होवे और अंतरंग में अभिमान करके सहित न होवे तो यह संसाररूपी नदी से पार करने में समर्थ हो सकता है इसलिये उस शरीर में उत्कृष्ट भी चंदन आदि लगाना सदा सर्वथा असारही है।

भावार्थ —जिस प्रकार तूंबी कड़वी होने के कारण उपभोग योग्य नहीं होती और यदि वही तूंबी छिद्रकर रहित होवे तथा धूप से सूखी हुई होवे और अंतरंग में भारी न होव तो नदी के पार होने में समर्थ होती है उसी प्रकार यह शरीर भी है क्योंकि यह भी तूंबी के समान कडुवा दु:ख को देने वाला है और यfिद यही शरीर मोह तथा खोटे जन्मरूपी छेदों कर रहित होवे, तपरूपी धूप से सूखा हुआ होवे और अंतरंग में अभिमान कर सहित न होवे तो अवश्य ही यह संसाररूपी छेदों कर रहित होवे, तपरूपी धूप से सूखा हुआ होवे और अंतरंग में अभिमान कर सहित न होवे तो अवश्य ही यह संसाररूपी नदी के पार होने में समर्थ हो सकता है अन्यथा असार है इसलिये भव्य जीवों को ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे उनका शरीर मोहादि छिद्रों कर रहित होवे और तप सहित होवे तथा अंतरंग में अभिमान करके सहित न होवे तभी उनको मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।।४।।

मालिनी छंद

भवतु भवतुं यादृकं तादृगेतद्वपुर्मे हृदि गुरुवचनं चेदस्ति तत्तत्त्वर्दिश।

त्वरितमसमसारानंदवंâदायमाना भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मी:।।५।।

अर्थ —वस्तु के वास्तविक स्वरूप का दिखाने वाला यदि गुरु का वचन मेरे मन में विद्यमान है तो यह मेरा शरीर जैसा रहे वैसा रहे कोईचिंता नहीं क्योंकि मन में विद्यमान उस श्रीगुरु के वचन के अनुभव से ही बात की बात में असाधारण सर्वोत्तम आनंद को देन वाली तथा अविनाशी मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

भावार्थ —यदि मन में गुरु का वचन विद्यमान न रहे और उस समय शरीर पुण्य की संचयकरने वाली शुभ क्रियाओं में न लगा हो तो उस समयचिंता अवश्य करनी चाहिये और यदि समस्त पदार्थो के वास्तविक स्वरूप का प्रकाश करने वाला गुरु का वचन मन में विद्यमान है तो शरीर चाहे वैâसा भी रहे कोईचिंता नहीं क्योंकि उस गुरु के वचन के अनुभव से ही दूसरी जगह पर न पाया जाय ऐसी सर्वोत्तम आनंद को देने वाली तथा आविनाशी मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है इसलिये जहाँ तक बने वहां तक भव्यजीवों को गुरु के वचन में अवश्य ही श्रद्धान रखना चाहिये।।५।।

शार्दूलविक्रीडित छंद

पर्यन्ते कृमयोऽथ बह्निवशतो भस्मैव मत्स्यादनात् विष्टा स्यादथवा वपु: परिणतिस्तस्येदृशी जायते।

नित्यं नैव रसायनादिभिरपि क्षय्येव यत्तत्कृते: क: पापं कुरुते बुधोऽत्र भविता कष्टा यता दुर्गति:।।६।।

अर्थ —जिस शरीर की अवस्था ऐसी होती है कि अंत समय में तो लट पड़ जाती हैं अथवा अग्नि से भस्म हो जाता है वा मछली आदिकों के खाने से विष्टा स्वरूप में परिणत हो जाता है और नित्य नहीं है तथा अनेक प्रकार की रसायन आदिक खाने पर भी नष्ट हो जाता है उस शरीर के लिये ऐसा संसार में कौन बुद्धिमान पुरुष होगा जो पाप करेगा जिस पाप से आगे अनेक प्रकार के दु:खों को देने वाली दुर्गति होवेगी।

भावार्थ —यfिद यह शरीर अंत समय में लट आदि कीड़ों से व्याप्त तथा अग्नि से भस्मस्वरूप और मछली आदि के खाने पर विष्टास्वरूप न होता तथा fिनत्य और रसायनादि के खाने से विनाशीक न होता तब तो उस शरीर के लिये अनेक प्रकार के पापों का करना कोई खराब नहीं था किन्तु यह शरीर तो मरण समय में अनेक प्रकार के कीड़ों से व्याप्त हो जाता है तथा अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है और fिजस समय मछली आदिक जीव इसको खोलते हैं उस समय यह उनकी विष्टास्वरूप में परिणत हो जाता है तथा नित्य भी यह नहीं है और अनेक प्रकार की रसायन आदिकों के खाने पर भी नष्ट हो जाता है फिर ऐसा कौन सा बुद्धिमान होगा जो इसके लिये अनेक प्रकार के पापों को संचय करेगा ? क्योंकि पापों से अनेक प्रकार के दु:खों को देने वाली दुर्गति की आगामी भवों में प्राप्ति होती है।।६।।

संसारस्तनुयोग एष विषयो दु:खान्यतो देहिनो वह्नेर्लोहसमाश्रितस्य घनतो घातोे यथा निष्ठुरात्।

त्याज्या तेन तनुर्मुमुक्षुभिरियं युक्त्या महत्या तया नो भूयोपि यथात्मनो भवकृते तत्सन्निधिर्जायते।।

अर्थ —जिस प्रकार लोह के आश्रित अग्नि को अत्यन्त कठिन घन से घात (चोट) सहने पड़ते हैं उसी प्रकार शरीर के संबंध से यह संसार होता है और संसार से जीवों को अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते हैं इसलिये जो भव्यजीव मुमुक्षुु हैं अर्थात् मोक्ष के अभिलाषी हैं उनको ऐसी किसी बड़ी भारी युक्ति के साथ इस शरीर का त्याग कर देना चाहिये कि जिससे पुन: इस आत्मा को संसार में भ्रमण कराने के लिये इस शरीर का संबंध न होवे।

भावार्थ —जिस समय लोहिंपड अग्नि में रख दिया जाता है और जब वह अग्निस्वरूप परिणत हो जाता है उस समय जिस प्रकार उस लोह के पिण्ड के साथ-२ उस अग्नि पर भी अत्यन्त कठोर घन के द्वारा अनेक चोटें पड़ती हैं उसी प्रकार जब तक इस शरीर का संबंध रहता है तब तक जीवों को नाना प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है क्योंकि इस शरीर के संबंध से जीव नाना प्रकार के पापों का उपार्जन करता है और उन पापों से उसको चतुर्गति स्वरूप संसार में घूमना पड़ता है और संसार में घूमने से उसको अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते हैं इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य मुमुक्षु हैं अर्थात् संसार के दु:खों से छूटकर मोक्ष को जाना चाहते हैं उनको चाहिये कि वे ऐसी किसी बड़ी भारी युक्ति से इस शरीर का त्याग करें कि फिर से अनेक भवों में भ्रमण कराने वाले इस शरीर का आत्मा के साथ संबंध न होवे।।७।।

आचार्य उपदेश देते हैं--

रक्षापोषविधौ जनोस्य वपुष: सर्व: सदैवोद्यत: कालादिष्टजरा करोत्यनुदिनं तज्जर्जरं चानयो:।

स्पर्द्धामाश्रितयोर्द्वर्योविजयनी सैका जरा जायते साक्षात्कालपुरस्सरा यदि तदा कास्था स्थिरत्वे नृणाम्।।

अर्थ —यह मनुष्यतो इस शरीर की रक्षा करने में तथा पोषण करने में सदा लगा रहता है परन्तु काल की आज्ञाकारिणी दासी यह वृद्धावस्था सदा उस शरीर को जर्जरित अर्थात् छिन्नभिन्न करती रहती है और यदि आपस में ईर्षा द्वेष करने वाले ऐसे इन जन्म मरणों के मध्य में काल है आगे जिसके ऐसी सबका जीतने वाली यह वृद्धावस्था मौजूद है तो यह शरीर सदाकाल रहेगा ऐसा मनुष्यों को क्या दृढ़ विश्वास है ?।

भावार्थ —यदि इस शरीर को रात दिन उजाड़ने वाली यह काल की दासी वृद्धावस्था न होती तब तो मनुष्यों का नाना प्रकार से इस शरीर को रक्षा करना, दूध दही घी आदि स्निग्ध पदार्थों से और इत्र फुलेल सुगंध लगाकर इस शरीर का पोषण करना व्यर्थ न होता किन्तु मनुष्य तो सदा इस शरीर का रक्षण करता रहता है और सदा ही इसका पोषण करता रहता है तो भी यह दुष्टा जरा उसको उजाड़ती ही रहती है इसलिये सदा किया हुआ भी रक्षण तथा पोषण इस शरीर का व्यर्थ ही हो जाता है और यदि परस्पर में ईर्षा रखने वाले जन्म मरण के मध्य में सबको जीतने वाली और जिसके आगे काल मौजूद है ऐसी वृद्धावस्था न होती तब तो मनुष्यों को, यह शरीर सदाकाल रहेगा कभी भी नाश नहीं होगा ऐसा विश्वास करना उचित होता लेकिन काल की दासी सबों को जीतने वाली वृद्धावस्था तो जन्म मरणों के बीच में बैठी हुई है इसलिये क्या निश्चय है कि यह शरीर सदा काल रहेगा इसलिये जो मनुष्य वास्तविक तत्त्व के स्वरूप को जानने वाले हैं उनको चाहिये कि वे इस शरीर को स्थिर समझकर व्यर्थ इसकी रक्षा तथा पोषण न करें और यह स्थिर है यह भी न मानें।।८।।

इति श्रीपद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनन्दिपंचविशतिका में शरीराष्टकनामक अधिकार समाप्त हुआ।