-अथ स्थापना-
श्री अभिनंदन जिन तीर्थंकर, त्रिभुवन आनंदकारी।
तिष्ठ रहें त्रैलोक्य शिखर पर, रत्नत्रय निधिधारी।।
परमानंद सुधारस स्वादी, मुनिवर तुम को ध्याते।
आह्वानन कर तुम्हें बुलाऊँ, पूजूँ मन हर्षाके।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
पद्म सरोवर का जल लेकर, कंचन झारी भरिये।
तीर्थंकर पदधारा देकर, जन्म मरण को हरिये।।
अभिनंदन जिन चरणकमल को, पूजूँ मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊँ, छूटूँ भव भव दु:ख से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन काश्मीरी, केशर संग घिसायो।
जिनवर चरण सरोरुह चर्चत, अतिशय पुण्य कमाओ।।अभि.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम तंदुल उज्ज्वल ले, धोकर थाल भराऊँ।
जिनवर आगे पुंज चढ़ाकर, अक्षय सुख को पाऊँ।।अभि.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा हरसिंगार चमेली, माला गूँथ बनाई।
तीर्थंकर पद कमल चढ़ाकर, काम व्यथा विनशाई।।अभि.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
फेनी गुझिया पूरण पोली, बरफी और समोसे।
प्रभु के सन्मुख अर्पण करते, क्षुधा डाकिनी नाशे।।अभि.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप की ज्योती जगमग, करती तिमिर विनाशे।
प्रभु तुम सन्मुख आरति करते, ज्ञानज्योति परकाशे।।अभि.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी धूपघटों में, खेवत उठे सुगंधी।
पापपुंज जलते इक क्षण में, फैले सुयश सुगंधी।।अभि.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब अनार आम सीताफल, ताजे सरस फलों से।
पूजूँ चरण कमल जिनवर के, मिले मोक्ष फल सुख से।।अभि.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल अघ्र्य सजाकर उसमें, चाँदी पुष्प मिलाऊँ।
‘ज्ञानमती’ कैवल्य हेतु मैं, प्रभु को अघ्र्य चढ़ाऊँ।।अभि.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
नाथ पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्म सुख लाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
नरेन्द्र छंद
पुरी अयोध्या में सिद्धार्था, माता के आँगन में।
रत्न बरसते पिता स्वयंवर, बाँट रहे जन जन में।।
मास श्रेष्ठ वैशाख शुक्ल की, षष्ठी गर्भकल्याणक।
इन्द्र महोत्सव करते मिलकर, जजें गर्भकल्याणक।।१।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां श्रीअभिनंदननाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, इन्द्र शची सह आए।
जिनबालक को गोदी में ले, सुरगिरि पर ले जायें।।
माघ शुक्ल द्वादश तिथि उत्तम, जन्म महोत्सव करते।
जिनवर जन्मकल्याणक पूजत, हम भवदधि से तरते।।२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
सुंदर नगर मेघ का विनशा, देख प्रभू वैरागी।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, प्रभु गुण में अनुरागी।।
हस्तचित्र पालकि में प्रभु को, बिठा अग्रवन पहुँचे।
माघ शुक्ल बारस दीक्षा ली, बेला कर प्रभु तिष्ठे।।३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
पौष शुक्ल चौदश तिथि जिनवर, असनवृक्ष तल तिष्ठे।
बेला करके शुक्ल ध्यान में, घातिकर्म रिपु दग्धे।।
केवलज्ञान ज्योति जगते ही, समवसरण की रचना।
अघ्र्य चढ़ाकर पूजत ही मैं, झट पाऊँ सुख अपना।।४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
प्रभु सम्मेदशिखर पर पहुँचे, योग निरोध किया जब।
तिथि वैशाख शुक्ल षष्ठी के, निज शिवधाम लिया तब।।
इन्द्र सभी मिल मोक्षकल्याणक, पूजा किया रुची से।
अभिनंदन जिन मोक्षकल्याणक, जजूँ यहाँ भक्ती से।।५।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां श्रीअभिनंदननाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
अभिनंदन जिन पदकमल, निजानंद दातार।
पूर्ण अघ्र्य अर्पण करत, मिले भवोदधि पार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
दुष्ट कर्म अरि नाश के, निज स्वतंत्र पद प्राप्त।
पुष्पांजलि कर पूजते, होवें निजगुण प्राप्त।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-स्रग्विणी छंद-
नित्य आनंद के हो स्वभावी तुम्हीं।
सौख्य शाश्वत मिले आपकी भक्ति से।।
वर्ण गंधादि से शून्य शुद्धात्मा।
मैं जजूँ आपको आश पूरो प्रभो!।।१।।
ॐ ह्रीं नित्यानंदस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आनंदधर्मा चिदानंद हो।
पूर्ण आनंदधन सौख्य देवो मुझे।।
वर्ण गंधादि से शून्य शुद्धातमा।
मैं जजूँ आपको आश पूरो प्रभो!।।२।।
ॐ ह्रीं आनंदधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम आनंद धर्मा गुणांभोधि हो।
स्वात्मआनंद पाऊँ प्रभो भक्ति से।।
कल्पतरु आपसे याचना मैं करूं।
दीजिये तीन ही रत्न पूजूँ तुम्हेंं।।३।।
ॐ ह्रीं परमानंदधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
राग आदि से हीन, साम्यस्वभावी देव हो।
जजूँ भक्ति में लीन, अभिनंदन जिनराज को।।४।।
ॐ ह्रीं साम्यस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्यस्वरूप महान्, समतादिक गुण के निलय।
नमूँ नमूँ गुणखान, साम्यरूप होवे प्रगट।।५।।
ॐ ह्रीं साम्यस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत की राशि, परमशुद्ध परमातमा।
नमत मिले सुख राशि, दोष अनंत समाप्त हो।।६।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत अभिराम, आप रूप हो परिणमे।
शत शत करूँ प्रणाम, मिले नंतगुण संपदा।।७।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत धरंत, अनेकांत के नाथ हो।
तुम पद भक्ति करंत, समकित निधि अनुपम मिले।।८।।
ॐ ह्रीं अनंतधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अनंत समेत, आप स्वरूप महान् है।
जजूँ स्वात्म पद हेतु, निजस्वरूप विकसित करो।।९।।
ॐ ह्रीं अनंतधर्मस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग द्वेष से दूर, शम स्वभाव भगवान् हो।
ज्ञान सुधारस पूर, भर दीजे भक्ती करूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं शमस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शम से तुष्ट महान्, सब विभाव से दूर हो।
जजत बनूँ धनवान्, स्वात्म सौख्य भंडार हो।।११।।
ॐ ह्रीं शमतुष्टाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं धन से संतोष, उपशम से ही शांति हो।
मिले स्वात्म संतोष, जजत कषायों को हनूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं शमसंतोषाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्यभाव स्थान, परमानंद प्रदानकृत्।
सप्तपरम स्थान, अभिनंदन जजते मिले।।१३।।
ॐ ह्रीं साम्यस्थानाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समभावों से श्रेष्ठ, अगणित गुणमणि प्राप्त हो।
अभिनंदन जग ज्येष्ठ, जजूं मुझे सुख साम्य दो।।१४।।
ॐ ह्रीं साम्यगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समता से कृतकृत्य, सिद्धिरमा के पति हुये।
पूजन से सत्कृत्य, वीतरागता को भजूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं साम्यकृतकृत्याय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिनगर को छोड़, अन्य शरण नहिं आपको।
नमूँ नमूँ कर जोड़, शरण लिया मैं आपकी।।१६।।
ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रादिक में नाहिं, ऐसे गुण बस आपमें।
नमूँ आप पद माहिं, निजगुण संपति दो मुझे।।१७।।
ॐ ह्रीं अनन्यगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्य जनों में नाहिं, ऐसा ज्ञान महान् है।
जजूँ चरण युग माहिं, अभिनंदन जिनराज के।१८।।
ॐ ह्रीं अनन्यप्रमाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना भेद प्रमाण, है प्रत्यक्ष परोक्ष से।
इनसे रहित महान्, अभिनंदन प्रभु को जजूं।।१९।।
ॐ ह्रीं प्रमाणमुक्ताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम हो ब्रह्मस्वरूप, परमब्रह्म परमातमा।
मिले स्वात्मचिद्रूप, अभिनंदन प्रभु को जजूं।।२०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मज्ञान गुणमान्य, चिच्चैतन्य स्वरूप हो।
मिले परम शुद्धात्म, नमूँ आपको भक्ति से।।२१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मज्ञान चैतन्य, चिन्मय चिंतामणि प्रभो।
मिटे जगत वैषम्य, नमते इच्छित फल मिले।।२२।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मचैतन्याय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन भगवान्, भाव पारिणामिक धरें।
स्वात्म सुधारस पान, करूँ आपकी भक्ति से।।२३।।
ॐ ह्रीं शुद्धपारिणामिकभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध स्वभाव धरंत, भाव कर्ममल से रहित।
अभिनंदन भगवंत, पूजत मन पावन करो।।२४।।
ॐ ह्रीं शुद्धस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्त रौद्र दुध्र्यान, भाव अशुद्धी से रहित।
देवो धर्म महान्, चित्त शुद्ध होवे प्रभो!।।२५।।
ॐ ह्रीं अशुद्धिरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मयमूर्ति अपूर्व, शुद्धि अशुद्धि से रहित।
नमते ज्ञान अपूर्व, मिले पूर्ण शुद्धी सहित।।२६।।
ॐ ह्रीं शुद्ध्यशुद्धिरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन हुआ अनंत, शाश्वत सर्व विलोकते।
नमूूँ जजूं भगवंत, गुण अनंत के हो धनी।।२७।।
ॐ ह्रीं अनंतदृशे श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय ज्योति धरंत, दर्श अनंतस्वरूप हो।
मेरे भव का अंत, होवे अभिनंदन जजूँ।।२८।।
ॐ ह्रीं अनंतदृक्स्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत दर्शानंद, गुण स्वभाव धारो तुम्हीं।
नमूँ नमूँ सुखकंद, गुण अनंत पूरो प्रभो!।।२९।।
ॐ ह्रीं अनंतदृगानंदस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत क्षायिक दर्श, उत्पादक तुम ही प्रभो।
क्षयोपशम गुण नष्ट, किया आप गुण को जजूँ।।३०।।
ॐ ह्रीं अनंतदृगुत्पादकाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्रुव अनंत भगवंत, द्रव्य नयाश्रित आप हो।
नहिं हो मेरा अंत, इसी हेतु पूजा करूँ।।३१।।
ॐ ह्रीं अनंतध्रुवाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाशरहित भगवंत, अनंत अव्यय भाव हो।
सौख्य अनंतानंत, आप भक्ति से प्राप्त हो।।३२।।
ॐ ह्रीं अनंताव्ययभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवपद कहा अनंत, वही महल है आपका।
नमूँ मुक्तिश्री कंत, शुक्लध्यान दीजे मुझे।।३३।।
ॐ ह्रीं अनंतनिलयाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल अनंत प्रमाण, सिद्धशिला पर राजते।
करो मेरा कल्याण, मृत्युजयी तुम पद जजूँ।।३४।।
ॐ ह्रीं अनंतकालाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भाव अनंत प्रमाण, नित्य आपमें शोभते।
त्रिभुवन वंद्य महान्, नमूँ स्वात्मगुण हेतु मैं।।३५।।
ॐ ह्रीं अनंतभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय ज्ञान स्वरूप, चिच्चैतन्य महान् हो।
गुणमणि स्वात्मस्वरूप, मिले आपकी भक्ति से।।३६।।
ॐ ह्रीं चिन्मयस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित् चिंतामणि रूप, प्रभु चिद्रूप स्वरूप हो।
नमूँ सदा गुण रूप, चिंतित फलदाता तुम्हीं।।३७।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिच्चैतन्य स्वरूप, धर्म एक अनुपम कहा।
परमशुद्ध चिद्रूप, नमूँ आप गुण हेतु मैं।।३८।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
निज आत्मा की उपलब्धि किया, संतत प्रभु रहते उसमें ही।
मैं निज से निज में रम जाऊँ, इसलिये नमूँ तुमको नित ही।।
अभिनन्दनप्रभु की पूजा से, ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।३९।।
ॐ ह्रीं स्वात्मोपलब्धिरतये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा का अनुभव करके, संपूर्ण कर्म को जला दिया।
निश्चय सम्यक्त्व मिले मुझको, इस हेतू प्रभु अर्चना किया।।अभि.।।४०।।
ॐ ह्रीं स्वानुभूतिरताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत मोक्षधाम जग में, उसमें रत आप सिद्धिपति हैं।
यह नाम मंत्र है परम, रसायन सर्व व्याधिहर औषधि है।।अभि.।।४१।।
ॐ ह्रीं परमामृतरताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमामृत में संतुष्ट हुये, वे सिद्ध गुणों से पुष्ट रहें।
इस अमृत की इक बिंदु मुझे, मिल जावे जिससे तुष्टि लहें।।अभि.।।४२।।
ॐ ह्रीं परमामृततुष्टाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में ही प्रीति परम तुष्टी, इससे परिपुष्ट बलिष्ठ बनें।
परमात्मा में प्रीती प्रतिक्षण, स्थायि रहे तब सौख्य घने।।अभि.।।४३।।
ॐ ह्रीं परमप्रीतये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकन्या के बल्लभ हो, अति श्रेष्ठ भुवनबल्लभ तुम ही।
इस भव में परभव में भी, बस मेरे साथ रहो तुम ही।।अभि.।।४४।।
ॐ ह्रीं परमबल्लभभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं प्रगट स्वभाव तुम्हारा है, बस योगी ही ध्या सकते हैं।
मेरे मन सरसिज में तिष्ठो, बस यही याचना करते हैं।।
अभिनन्दनप्रभु की पूजा से, ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।४५।।
ॐ ह्रीं अव्यक्तस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व स्वरूप तुम्हारा है, अणुमात्र न पर अपना होता।
एकत्व भावना मिल जावे, पूजा का लाभ यही होगा।।अभि.।।४६।।
ॐ ह्रीं एकत्वस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व नाम का गुण अनुपम, इससे ही आप जगद्गुरु हैं।
मैं एक अकेला त्रिभुवन में, बस आप ही एक मेरे प्रभु हैं।।अभि.।।४७।।
ॐ ह्रीं एकत्वगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकत्व भावना को भाकर, मुनिराज स्वात्मसुख पाते हैं।
फिर चित्स्वभाव में तन्मय हो, त्रिभुवन के गुरु बन जाते हैं।।अभि.।।४८।।
ॐ ह्रीं एकत्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नय प्रमाणादि का द्वित्व जहाँ, नहिं रहता है बस एकात्मा।
निर्विकल्प ध्यान ऐसा उत्तम, जिससे प्रगटित हो परमात्मा।।अभि.।।४९।।
ॐ ह्रीं द्वित्वविनाशनाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय से आत्मा शाश्वत है, नहिं जन्म मरण होता उसको।
निज शुद्ध ध्यान से प्रगट किया, नित नमूँ सदा उन जिनवर को।।अभि.।।५०।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत प्रकाश को फैलाया, तीनों जग में अद्भुत रवि हो।
मेरा मन कमल विकास करो, सब मोह अंधेरा विघटित हो।।अभि.।।५१।।
ॐ ह्रीं शाश्वतप्रकाशाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत उद्योत किया भगवन्, नहिं गमन कदाचित् करते हो।
मेरे मन में उद्योत करो, अज्ञान तुम्हीं हर सकते हो।।अभि.।।५२।।
ॐ ह्रीं शाश्वतउद्योताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत धर्मामृत बरसाते, प्रभु आप एक अद्भुत शशि हो।
शुद्धात्म पियूष मुझे भी दो, जिससे मुझ आत्मा सुखमय हो।।
अभिनंदन प्रभु की पूजा से ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।५३।।
ॐ ह्रीं शाश्वतामृतचंद्राय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत अमृत की मूर्ति तुम्हीं, नहिं मरण आपका हो सकता।
निज आत्म सुधारस मिल जावे, जिससे मुझ मरण विनश सकता।।अभि.।।५४।।
ॐ ह्रीं शाश्वतअमृतमूर्तये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब नाम कर्म को नष्ट किया, इससे प्रभु परमसूक्ष्म मानें।
मैं ध्यान धरूँ सूक्ष्मात्मा का, मेरे सब दुष्ट कर्म हानें।।अभि.।।५५।।
ॐ ह्रीं परमसूक्ष्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म गुणान्वित सब सिद्धों, को अवगाहन देने वाले।
इक सिद्ध में सिद्ध अनंतानंत, रहें सुअनंत गुणों वाले।।अभि.।।५६।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मावकाशाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में सूक्ष्म अनंत गुणों, को युगपत् जान रहे हैं जो।
उन सूक्ष्म गुणान्वित जिनवर को, वंदन करते ही शिवसुख हो ।।अभि.।।५७।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो परमरूप में लीन रहे, वे निजस्वरूप में गुप्ति धरें।
निज से निज को निज में पाकर, अतिशायि स्वस्थ शिवधाम वरें।।अभि.।।५८।।
ॐ ह्रीं परमस्वरूपगुप्तये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादारहित पूर्ण सुख का, जो संतत अनुभव करते हैं।
ऐेसे जिनवर को हृदय कमल, में मुनिगण धारण करते हैं।।अभि.।।५९।।
ॐ ह्रीं निरवधिसुखाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मर्यादा विरहित गुणमणि से, जो निज को भूषित कर शोभें।
उनके गुण का जो कथन करें, वे स्वयं स्वात्म गुण से शोभें।।अभि.।।६०।।
ॐ ह्रीं निरवधिगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधी विरहित निज के स्वरूप, में सुस्थित हुये अनंतावधि।
इन सिद्धों की स्तुति करते, मिल जावे निजस्वरूप निरवधि।।
अभिनन्दनप्रभु की पूजा से, ‘सोहं’ यह भाव प्रगट होता।
फिर पुनर्भवों से छूटें जन, निज आत्मा का अनुभव होता।।६१।।
ॐ ह्रीं निरवधिस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित ज्ञान पाकर, त्रिभुवन को युगपत् जान लिया।
तुलना से रहित सुयश पाकर, त्रिभुवन में कीर्ति बिखेर दिया।।अभि.।।६२।।
ॐ ह्रीं अतुलज्ञानाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपमा से रहित सौख्य पाकर, जो काल अनंतों तक सुखमय।
जिनके पदकमल सतत मुनिगण, अपने मन से ध्याते गुणमय।।अभि.।।६३।।
ॐ ह्रीं अतुलसुखाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित भाव धरकर, लोकाग्र भाग पर राज रहे।
इनको निज मन में ध्या करके, मुनिगण निजशुद्ध स्वभाव लहें।।अभि.।।६४।।
ॐ ह्रीं अतुलभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुलना से रहित अतुल गुण को, पाकर जो संतत तृप्त रहें।
उनके गुण का यश गाते ही, भविजन नितप्रति संतुष्ट रहें।।अभि.।।६५।।
ॐ ह्रीं अतुलगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अतुल प्रकाश धरें निज का , आत्मा की ज्योती अद्भुत है।
उन जिनवर को चित में धरते, अज्ञान अंधेरा विघटित है।।अभि.।।६६।।
ॐ ह्रीं अतुलप्रकाशाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर आदि डिगाने आवें, फिर भी जो अचल रहावें।
जो ऐसा ध्यान लगावें, वे सिद्ध बनें मुनि ध्यावें।।६७।।
ॐ ह्रीं अचलाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनने निश्चल गुण पाये, वे स्वात्मसुखास्पद पाये।
जो उनको नितप्रति पूजें, उनके सब पातक धूजें।।६८।।
ॐ ह्रीं अचलगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचलस्वभाव धरें हैं, शिवकन्या वे हि वरे हैं।
जो उनकी भक्ति करेंगे, वे निज की तृप्ति करेंगे।।६९।।
ॐ ह्रीं अचलस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अचलस्वरूप धरंता, वे सिद्धिवधू के कंता।
उनकोे हम वंदन करते, संपूर्ण उपद्रव टलते।।७०।।
ॐ ह्रीं अचलस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में ख्यात हुये हैं, अवलंबन रहित हुये हैं।
अभिनंदन प्रभु का अर्चन, कर देता पाप निकंदन।।७१।।
ॐ ह्रीं निरालंबाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पर के अवलंबन विरहित, सब परिग्रह संग विवर्जित।
अभिनंदन प्रभु की भक्ती, इससे शिवपथ की युक्ती।।७२।।
ॐ ह्रीं आलंबरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म लेप से हीना, गुणमणि युत निज में लीना।
अभिनंदन प्रभु की अर्चा, जिससे निज की हो चर्चा।।।७३।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म कलंक विहीना, प्रभु निष्कलंक गुण लीना।
इन तीर्थंकर को वंदूूं, यमराज दु:ख को खंडूं।।७४।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में ही अतिशय प्रीती, परद्रव्यों में अप्रीती।
इन तीर्थंकर को पूजूँ, संपूर्ण दु:खों से छूटूँ।।७५।।
ॐ ह्रीं आत्मरतये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु निज स्वरूप में गुप्ती, इससे ही पायी मुक्ती।
मैं तीर्थंकर को ध्याऊँ, निज में समरससुख पाऊँ।।७६।।
ॐ ह्रीं स्वरूपगुप्तये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज शुद्ध द्रव्य के स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
आठों कर्मों से विरहित, जिनवर को पूजूँ नितप्रति।।७७।।
ॐ ह्रीं शुद्धद्रव्याय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों परिवर्तन शून्या, संसार भ्रमण दुख शून्या।
ऐसे जिनवर का वंदन, मिट जावे भवभय क्रन्दन।।७८।।
ॐ ह्रीं असंसाराय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत प्रीती, परभाव विरागी नीती।
तीर्थंकर शरण में आयो, परमानंदामृत पायो।।७९।।
ॐ ह्रीं स्वानंदरतये श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज का आनंद महाना, जिन भाव स्वरूप निधाना।
अभिनंदन चरण की श्रद्धा, करती धन धान्य समृद्धा।।८०।।
ॐ ह्रीं स्वानंदभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनंदस्वरूप हमेशा, भव दु:ख रहित परमेशा।
मैं आप शरण में आके, निज सुख पायो हर्षाके।।८१।।
ॐ ह्रीं स्वानंदस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज परमानंद गुणान्वित, संपूर्ण विभाव विवर्जित।
ऐसे प्रभुवर की भक्ती, प्रगटावे आतम शक्ती।।८२।।
ॐ ह्रीं स्वानंदगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आनंदामृत तुष्टी, निज गुण से ही परिपुष्टी।
ऐसे प्रभुवर की अर्चा, मेटे भव भव दुख चर्चा।।८३।।
ॐ ह्रीं स्वानंदसंतोषाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब ही विभाव पर्यायें, हो गई शुद्ध मन भायें।
अभिनंदन प्रभु को वंदूँ, निज को गुणमणि से मंडूं।।८४।।
ॐ ह्रीं शुद्धभावपर्यायाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पराधीनता विरहित, प्रभु पूर्ण स्वतंत्र गुणों युत।
मैं जजूँ भक्ति से प्रभु को, पाऊँ स्वतंत्रता गुण जो।।८५।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्रधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्म स्वभाव अनूपा, परमाल्हादक गुणरूपा।
ऐसे जिनवर को वंदूं, कर्मारिशत्रु को खंडूं।।८६।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित् भाव चिदानंद दाता, निज शुद्धों की है माता।
ऐसे जिनवर का अर्चन, संपूर्ण दुखों का मर्दन।।८७।।
ॐ ह्रीं परमचित्परिणामाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप ज्ञानगुणधारी, चैतन्यस्वरूप विहारी।
मैं नमूँ आप गुण गाऊँ, परमानंदामृत पाऊँ।।८८।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपस्वरूपाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिद्रूप चिदानंद स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
मैं जजूँ परम श्रद्धा से, तृप्ती हो ज्ञान सुधा से।।८९।।
ॐ ह्रीं चिद्रूपगुणाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्नातक परम तुम्हीं हो, कैवल्यज्ञान संयुत हो।
मैं पूजूँ अघ्र्य चढ़ाके, निज सुख पाऊँ गुण गाके।।९०।।
ॐ ह्रीं परमस्नातकाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शुद्ध धर्म के धारी, स्नात कहें नर नारी।
मैं वंदन करूँ रुची से, पा जाऊँ धर्म तुम्हीं से।।९१।।
ॐ ह्रीं स्नातधर्माय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भुवन अवलोका, निज स्वात्म स्वरूप विलोका।
मैं नमूूँ शीश को नाऊं, परमानंदामृत पाऊँ।।९२।।
ॐ ह्रीं सर्वविलोकनाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य शिखर पर तिष्ठे, परिवर्तन पाँच मिटाके।
मैं जजूँ युगल कर जोड़े, नानाविधि संपत दौड़े।।९३।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रस्थिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु लोक अलोक सुव्यापी, निज ज्ञान किरण से व्यापी।
भक्ती से अघ्र्य चढ़ाऊँ, निज ज्ञान सूर्य प्रगटाऊँ।।९४।।
ॐ ह्रीं लोकालोकव्यापकाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म आठोें सभी जीव को दु:ख दें।
मुक्ति साम्राज्य को छीन लीना प्रभो।।
स्वात्म सिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आप को पूजते सर्व व्याधी टले।।९५।।
ॐ ह्रीं कर्र्माष्टकरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक सौ आठ चालीस प्रकृती कही।
आपने नाशके मोक्षलक्ष्मी लिया।।
कर्म से शून्य परमात्मसुख के लिये।
मैं जजूँ आपको लब्धियां नौ मिलें।।९६।।
ॐ ह्रीं शताष्टचत्वारिंशत्कर्मप्रकृतिमुक्ताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद संख्यात हों आठ के।
नाश के आपने सिद्धिकांता वरी।।
स्वात्मसिद्धी मिले ज्ञानज्योती जगे।
आपको पूजते सर्व व्याधी टले।।९७।।
ॐ ह्रीं संख्यातकर्मछेदकाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के ही असंख्यात भी भेद हों।
नित्य संसार में ये रुलाते रहें।।
आपने नाश के सिद्धिकन्या वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।९८।।
ॐ ह्रीं असंख्यातकर्मरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म के भेद ये जो अनंते कहे।
सौख्य मेरा अनंता इन्होंने हरा।।
आपने नाश के सिद्धिकांता वरी।
मैं नमूँ आपको स्वात्मसंपद मिले।।९९।।
ॐ ह्रीं अनंतकर्मविमुक्ताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म नाशे अनंते अनंते सभी।
आप ही ज्ञान आनन्त्य सिंधू कहे।।
मैं अनंतों गुणों को स्वयं ही वरूँ।
शक्ति ऐसी मिले आपकी भक्ति से।।१००।।
ॐ ह्रीं अनन्तानन्तकर्मरहिताय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘सुकृती’ तुम पुण्य धरन्ता।
पुण्य करें जन भक्ति करन्ता।।
श्री अभिनंदन जिन को पूजूं।
सर्व अमंगल दु:ख से छूटूं।।१०१।।
ॐ ह्रीं सुकृतिने श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धातु’ तुम्हीं सब शब्द जनंता।
चिन्मय धातु तनू भगवंता।।अभि.।।१०२।।
ॐ ह्रीं धातवे श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘इज्यार्ह’ कहाये।
इन्द्र मुनीगण पूज्य सु गायें।।अभि.।।१०३।।
ॐ ह्रीं इज्यार्हाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुनय’ सहपेक्ष नयों से।
सत्य सुधर्म कहा अति नीके।।अभि.।।१०४।।
ॐ ह्रीं सुनयाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसुनिवास’ तुम्हीं प्रभु माने।
सम्पति धाम तुम्हें मुनि जानें।।अभि.।।१०५।।
ॐ ह्रीं श्रीनिवासाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘चतुरानन’ ब्रह्मा।
दीख रहे मुख चार सभा मा।।अभि.।।१०६।।
ॐ ह्रीं चतुराननाय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘चतुर्वक्त्र’ तुमको सुर पेखें।
नाथ! समोसृति में तुम देखें।।
श्री अभिनंदन जिन को पूजूं।
सर्व अमंगल दु:ख से छूटूं।।१०७।।
ॐ ह्रीं चतुर्वक्त्राय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘चतुरास्य’ तुम्हें भवि वंदें।
जन्म जरा मृति तीनहिं खंडें।।अभि.।।१०८।।
ॐ ह्रीं चतुरास्याय श्री अभिनंदननाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सर्व सिद्ध अनादि अनिधन गुण सुगंधि बिखेरते।
अनुपम अखंडित ज्ञान रवि से साधु मन तम भेदते।।
मन वचन तनु से शुद्ध हो, मैं करूँ प्रभु की अर्चना।
जल गंध आदिक अघ्र्य अर्पूं, करूँ यम की भत्र्सना।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्री अभिनंदननाथाय पूर्णार्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथाय नम:।
(९, २७ या १०८ सुंगधित पुष्प या लवंग या पीले तंदुल से जाप्य करना)
-दोहा-
गणपति नरपति सुरपती, खगपति रुचि मन धार।
अभिनंदन प्रभु आपके, गाते गुण अविकार।।१।।
-शेर छंद-
जय जय जिनेन्द्र आपने जब जन्म था लिया।
इन्द्रों के भी आसन कंपे आश्चर्य हो गया।।
सुरपति स्वयं आसन से उतर सात पग चले।
मस्तक झुका के नाथ चरण वंदना करें।।२।।
प्रभु आपका जन्माभिषेक इन्द्र ने किया।
सुरगण असंख्य भक्ति से आनंदरस लिया।।
तब इन्द्र ने ‘‘अभिनंदन’’ यह नाम रख दिया।
त्रिभुवन में भी आनंद ही आनंद छा गया।।३।।
प्रभु गर्भ में भी तीन ज्ञान थे तुम्हारे ही।
दीक्षा लिया तत्क्षण ही मन:पर्यज्ञान भी।।
छद्मस्थ में अठरा बरस ही मौन से रहे।
हो केवली फिर सर्व को उपदेश दे रहे।।४।।
गणधर प्रभू थे वङ्कानाभि समवसरण में।
सब इक सौ तीन गणधर सब ऋद्धियाँ उनमें।।
थे तीन लाख मुनिवर ये सात भेदयुत।
ये तीन रत्नधारी, निग्र्रंथ वेषयुत।।५।।
गणिनी श्री मेरुषेणा आर्या शिरोमणी।
त्रय लाख तीस सहस छह सौ आर्यिका भणी।।
थे तीन लाख श्रावक, पण लक्ष श्राविका।
चतुसंघ ने था पा लिया, भवसिंधु की नौका।।६।।
सब देव देवियाँ असंख्य थे वहाँ तभी।
तिर्यंच भी संख्यात थे सम्यक्त्व युक्त भी।।
सबने जिनेन्द्र वच पियूष पान किया था।
संसार जलधि तिरने को सीख लिया था।।७।।
इक्ष्वाकुवंश भास्कर कपि चिन्ह को धरें।
प्रभु तीन सौ पचास धनुष तुंग तनु धरें।।
पचास लाख पूर्व वर्ष आयु आपकी।
कांचनद्युती जिनराज थे सुंदर अपूर्व ही।।८।।
तन भी पवित्र आपका सुद्रव्य कहाया।
शुभ ही सभी परमाणुओं से प्रकृति बनाया।।
तुम देह के आकार वर्ण गंध आदि की।
पूजा करें वे धन्य मनुज जन्म धरें भी।।९।।
प्रभु देह रहित आप, निराकार कहाये।
वर्णादि रहित नाथ! ज्ञानदेह धराये।।
परिपूर्ण शुद्ध बुद्ध, सिद्ध परम आत्मा।
हो ‘ज्ञानमती’ शुद्ध, बनूँ शुद्ध आतमा।।१०।।
-दोहा-
पुण्य राशि औ पुण्य फल, तीर्थंकर भगवान्।
स्वातम पावन हेतु मैं, नमूँ नमूँ सुखदान।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भव्य अभिनंदन विधान, सदा करें बहु भक्ति से।
वे नित्य ही आनंद मंगल, पाएंगे शुभ भाग्य से।।
इस लोक के सुख भोग कर, फिर गुण अनंतों पाएंगे।
स्वयमेव केवल ‘ज्ञानमति’ हो, मुक्तिसुख पा जाएंगे।।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
-सोरठा-
अभिनंदन जिनदेव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।१।।
-सखी छंद-
जय जय जिन देव हमारे, जय जय भविजन बहु तारें।
जय मुक्तिरमापति देवा, शत इंद्र करें तुम सेवा।।२।।
मुनिवृंद तुम्हें चित धारें, भविवृंद सुयश विस्तारें।
सुर नर किन्नर गुण गावें, किन्नरियाँ बीन बजावें।।३।।
भक्तीवश नृत्य करे हैं, गुण गाकर पाप हरे हैं।
विद्याधर गण बहु आवें, दर्शन कर पुण्य कमावें।।४।।
भव भव के त्रास मिटावें, यम का अस्तित्त्व हटावें।
जो जिनगुण में मन पागें, तिन देख मोह रिपु भागें।।५।।
जो प्रभु की पूज रचावें, इस जग में पूजा पावें।
जो प्रभु का ध्यान धरे हैं, उनका सब ध्यान करे हैं।।६।।
जो करते भक्ति तुम्हारी, वे भव भव में सुखियारी।
इस हेतु प्रभो तुम पासे, मन के उद्गार निकासे।।७।।
जब तक मुझ मुक्ति न होवे, तब तक सम्यक्त्व न खोवे।
तब तक जिनगुण उच्चारूँ, तब तक मैं संयम धारूँ।।८।।
तब तक हो श्रेष्ठ समाधी, नाशे जन्मादिक व्याधी।
तब तक रत्नत्रय पाऊँ, तब तक निज ध्यान लगाऊँ।।९।।
तब तक तुम ही मुझ स्वामी, भव भव में हो निष्कामी।
ये भाव हमारे पूरो, मुझ मोह शत्रु को चूरो।।१०।।
-घत्ता-
जय जय चिन्मूरति, गुणमति पूरित, जय जिनवर वृष चक्रपती।
जय ‘ज्ञानमती’ धर, शिवलक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धगती।।११।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथाय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
जो भव्य अभिनंदन विधान, सदा करें बहु भक्ति से।
वे नित्य ही आनंद मंगल, पायेंगे शुभ भाग्य से।।
इस लोक के सुख भोग कर, फिर गुण अनंतों पाएंगे।
स्वयमेव केवल ‘ज्ञानमति’ हो, मुक्तिसुख पा जाएंगे।।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
प्रशस्ति
-दोहा-
तीर्थंकर चक्री मदन, त्रयपद धारी ईश।
शांतिनाथ भगवान को, नमूँ-नमूँ नत शीश।।१।।
कुन्थुनाथ-अरनाथ प्रभु, तीन-तीन पद नाथ।
इनके श्री चरणाब्ज को, नमूँ नमाकर माथ।।२।।
वर्तमान में वीरप्रभु, शासनपति भगवान।
इनके शासन में हुये, बहु आचार्य महान।।३।।
मूलसंघ में कुंदकुंद गुरु, अन्वय सरस्वतिगच्छ।
बलात्कारगण में हुए , सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।४।।
सदी बीसवीं के प्रथम, गुरु दिगंबराचार्य।
चरितचक्रवर्ती श्री, शांतिसागराचार्य।।५।।
इनके शिष्योत्तम श्री, वीरसागराचार्य।
पहले पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।६।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, चालिस जगत्प्रसिद्ध।
पौष शुक्ल चौदस तिथी, हस्तिनागपुर तीर्थ।।७।।
मैंने गणिनी ज्ञानमती, किया विधान प्रपूर्ण।
अभिनंदन भगवान का, भरे सौख्य संपूर्ण।।८।।
जब तक जम्बूद्वीप की, कीर्ति जगत् में व्याप्त।
तब तक ‘‘ज्ञानमती’’ कृती, रहे विश्वविख्यात।।९।।
(इति श्रीअभिनंदननाथविधानं संपूर्णं।)
वद्र्धतां जिनशासनं।