उपाध्यायों को नमस्कार हो-चौदह विद्यास्थान (चौदह पूर्व) के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं
अथवा तत्कालीन प्रवचन-परमागम के व्याख्यान करने वाले भी उपाध्याय होते हैं।
यहाँ चौदह विद्यास्थान से चौदह पूर्व ही जानना चाहिए।
क्योंकि कषायपाहुड़ में पृ. २६ पर कहा है-‘‘इन चौदह विद्यास्थानों के विषय का प्ररूपण जानकर करना चाहिए।
जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं
तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों-मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं।
जो चौदह पूर्व रूपी महासमुद्र में अवगाहन करके मोक्षमार्ग में स्वयं स्थित होते हुए
मोक्षार्थी शील व्रतों के धारी मुनियों के वक्ता हैं, उपदेशक हैं, अध्यापक हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं।
इन उपाध्याय गुरु के ग्यारह अंग-चौदह पूर्व ज्ञान की अपेक्षा पच्चीस गुण होते हैं।
विशेषार्थ-उपाध्याय परमेष्ठी केवल पठन-पाठन में ही लगे रहते हैं।
अन्यत्र उपाध्याय के मुख्य पच्चीस गुण माने हैं-
‘‘ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को आप पढ़ते हैं और अन्य को पढ़ाते हैं। ये पच्चीस गुण उपाध्याय परमेष्ठी के होते हैं।’’
ग्यारह अंग-
१. आचारांग २. सूत्रकृतांग
३. स्थानांग ४. समवायांग
५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञातृकथांग
७. उपासकाध्ययनांग ८. अंत:कृद्दशांग
९. अनुत्तरोत्पाददशांग
१०. प्रश्नव्याकरणाांग ११. विपाकसूत्रांग।
चौदह पूर्व-
१. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीयपूर्व
३. वीर्यानुवादपूर्व ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व
५. ज्ञानप्रवादपूर्व ६. कर्मप्रवादपूर्व
७. सत्यप्रवादपूर्व ८. आत्मप्रवादपूर्व
९. प्रत्याख्यानपूर्व १०. विद्यानुवादपूर्व
११. कल्याणवादपूर्व १२. प्राणावायपूर्व
१३. क्रियाविशालपूर्व और १४. लोकविंदुसारपूर्व।
आज इन अंगपूर्वों का ज्ञान न रहते हुए भी उनके कुछ अंशरूप षट्खण्डागम, कसायपाहुड़ आदि ग्रंथ तथा उन्हीं की परम्परा से आगत समयसार, मूलाचार आदि ग्रंथ विद्यमान हैं। तत्कालीन सभी ग्रंथों के पढ़ने-पढ़ाने वाले भी उपाध्याय परमेष्ठी हो सकते हैं। ‘‘धवला’’ में ‘‘तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा’’ इस पद से स्पष्ट किया है।