अनन्त चतुष्टय धारी ‘अनन्त, अनन्त गुणों की खान “अनन्त’ ।

सर्वशुध्द ज्ञायक हैं अनन्त, हरण करें मम दोष अनन्त ।

नगर अयोध्या महा सुखकार, राज्य करें सिहंसेन अपार ।

सर्वयशा महादेवी उनकी, जननी कहलाई जिनवर की ।

द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी, जन्मे तीर्थंकर हितकारी ।

इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, न्हवन करें मेरु पर जाकर ।

नाम “अनन्तनाथ’ शुभ बीना, उत्सव करते नित्य नवीना ।

सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का, पार नहीं गुण के सागर का ।

वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का, जान धरें मति- श्रुत- अवधि का ।

आयु तीस लख वर्ष उपाई, धनुष अर्घशन तन ऊंचाई ।

बचपन गया जवानी आई, राज्य मिला उनको सुखदाई ।

हुआ विवाह उनका मंगलमय, जीवन था जिनवर का सुखमय ।

पन्द्रह लाख बरस बीते जब, उल्कापात से हुए विरत तब ।

जग में सुख पाया किसने-कब, मन से त्याग राग भाव सब ।

बारह भावना मन में भाये, ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये ।

“अनन्तविजय” सुत तिलक-कराकर, देवोमई शिविका पधरा कर ।

गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ ।

द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मासा, तीन दिन का धारा उपवास ।

गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य ‘विशाख’ आहार करा कर ।

मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल- तल में ।

अटल रहे निज योग ध्यान मेँ, झलके लोकालोक ज्ञान मेँ ।

कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की ।

जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत सम कानों को लगती ।

चतुर्गति दुख चित्रण करते, भविजन सुन पापों से डरते ।

जो चाहो तुम मुयित्त पाना, निज आतम की शरण में जाना ।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित हैँ, कहे व्यवहार मेँ रतनत्रय हैं ।

निश्चय से शुद्धातम ध्याकर, शिवपट मिलना सुख रत्नाकर ।

श्रद्धा करके भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।

हुआ विहार देश और प्रान्त, सत्पथ दर्शाये जिननाथ ।

अन्त समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल ।

कृष्ण चैत्र अमावस पावन, भोक्षमहल पहुंचे मनभावन ।

उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।

शुभ लक्षण प्रभुवर का ‘सेही’, शोभित होता प्रभु- पद में ही ।

हम सब अरज करे बस ये ही, पार करो भवसागर से ही ।

है प्रभु लोकालोक अनन्त, झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त ।

हुआ अनन्त भवों का अन्त, अद्भुत तुम महिमां है “अनन्त’ ।

जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनन्तनाथाय नम: