रक्षाबन्धन पूजा (श्री विष्णुकुमार पूजा)
अडिल्ल छन्द
विष्णुकुमार महामुनि को ऋद्धि भई,
नाम विक्रिया तास सकल आनन्द ठई।
सो मुनि आये हथनापुर के बीच में,
तहां भयो आनन्द सर्व जीवन घनो,
जिन चिन्तामणि रत्न एक पायो मनो।
सब पुर जय जयकार शब्द उचरत भये,
मुनि को देय आहार जाप करते भये।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टक
गंगाजल सम उज्जवल नीर, पूजों विष्णुकुमार सुधीर।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्यागिर चन्दन शुभसागर, पूजों श्री गुरुवर निर्धार।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेत अखण्डित अक्षत लाय, पूजों श्री मुनिवर के पाय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कमल केतकी पुष्प चढ़ाय, मेटो कामबाण सुखदाय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू फेनी घेवर लाय, सब मोदक मुनि चरण चढ़ाय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत कपूर का दीपक जोय, मोहतिमिर सब जावै खोय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर कपूर सुधूप बनाय, जारे अष्ट कर्म दुखदाय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
लौंग इलायची श्रीफल सार, पूजों श्रीमुनि सुखदातार।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलफल आठों द्रव्य संजोय, श्रीमुनिवर पद पूजों दोय।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
सप्त सैंकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करो विष्णु भगवान।
दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
श्रावण सुदी सु पूर्णिमा, मुनि रक्षा दिन जान।
रक्षक विष्णुकुमार मुनि, तिन जयमाल बखान।।
चाल - छन्द भुजंगप्रयात
श्री विष्णु देवा करूँ चर्ण सेवा,
हरो जग की बाधा सुनो टेर देवा।
गजपुर पधारे महा सुक्खकारी,
धरो रूप वामन सुमन में विचारी।।
गये पास बलि के हुआ वो प्रसन्ना,
जो मांगों सो पावो दिया ये वचन्ना।
मुनि तीन डग मांगि धरनी सु तापे,
दई ताने ततच्छन सु नहिं ढील थापैं।
कर विक्रिया मुनि सुकाया बढ़ाई,
जगह सारी लेली सुडग के मांही।।
धरी तीसरी डग बली पीठ मांही,
सु मांगी क्षमा तब बली ने बनाई।
जल की सुवृष्टि करी सौख्यकारी,
सर्व अग्नि क्षण में भई भस्म सारी।।
टरे सर्व उपसर्ग श्री विष्णुजी से,
भई जै जैकारा सर्व नग्र ही से।।
फिर राजा के हुक्म प्रमान,
रक्षाबन्धन बंधी सुजान।
मुनिवर घर घर कियो बिहार,
श्रावक जन तिन दियो आहार।।
जाघर मुनि नहिं आये कोय,
निज दरवाजे चित्र सुलोय।
स्थापन कर तिन दियो आहार,
फिर सब भोजन कियो सम्हार।।
तबसे नाम सलूना सार,
जैनधर्म का है त्यौहार।
शुद्ध क्रिया कर मानो जीव,
जासों धर्म बढ़ै सु अतीव।।
धर्म पदारथ जग में सार,
धर्म बिना झूठो संसार।
सावन सुदि पूनम जब होय,
यह दो पूजन कीजे लोय।।
सब भायन को दो समझाय,
रक्षाबन्धन कथा सुनाय।
मुनि का निज घर करो आकार,
मुनि समान तिन देउ आहार।।
सबके रक्षाबन्धन बांध,
जैन मुनिन की रक्षा जान।
इस विधि से मानो त्यौहार,
नाम सलूना है संसार।।
घत्ता
मुनि दीनदयाला सब दुख टाला, आनन्द माला सुखकारी।
‘रघुसुत’ नत वन्दे आनन्द कन्दे, सुक्ख करन्दे हितकारी।।
ओं ह्रीं श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
विष्णुकुमार मुनि के चरण, जो पूजे धर प्रीत।
‘रघुसुत’ पावै स्वर्ग पद, लहै पुन्य नवनीत।।
इत्याशीर्वाद- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्