णिनी आर्यिका १०५ विज्ञाश्री माताजी की पूजन

पाद प्रक्षालन

तेरे चरणों की धूलि माता,चंदन गुलाल बने।

जिसने भी लगाई मस्तक ,उज़की तकदीर बने।।

स्थापना: (तर्ज- ऐ मेरे वतन….)

माँ विज्ञाश्री प्रज्ञा दाता, तुम सरस्वती या जिनवाणी ।

हे ज्ञान ध्यान वैराग्य मूर्ति,तुम स्वानुभूति समरस खानी।।

चारित्र चन्द्रिका हे माता ,चरणों मे शत -शत वंदन हो ।

तुम पर्व दशहरा दिवाली ,पर्युषण रक्षाबंधन हो।।

माँ की ममता तुममें मिलती, वात्सल्य गुरु का मिलता है।

विश्वास आपका महाप्रबल ,जीवन में बना सफलता हैं।।

ज्ञाता द्रष्टा का भाव सहज , शुध्दात्म साधिका ने पाया।

माँ विज्ञा श्री की पूजन को, मेरा अन्तर्मन ललचाया।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका रत्न 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र अवतर संवौषट्आह् वाननं

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:ठ:स्थापनं।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र मम सन्नीहितो भव भव वषट् अन्निधि करणं।।

अष्टक (जिस देश मे जिस भेष में …)

जल सा उज्ज्वल जिनका जीवन, जल से निर्मल जिनकी चर्या।

जल सी मधुरिम जिनकी वाणी,जल सी प्रशांत जिनकी क्रिया ।।

माँ विज्ञा के प्रज्ञा जल में,अवगाहन करने आया हूँ।

शुभ भाव समर्पित करने को,यह अक्षर जल भर लाया हूँ।।

जिस हाल में,जिस साल में,जिस काल मे रहो।

गुरु नाम जपो-गुरु नाम जपो-गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु जन्म जरा मृत्यू विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा ।

चरित्र चन्द्रिका माताजी ,चंदन सा जीवन महकाया ।

स्वाध्याय साधना में घिसकर , श्रुतज्ञान तिलक यह लगवाया।।

चन्दन स्वभाव सम सुरभित हो, चैतन्य सुरभि उर में धारे।

तेरे स्वभाव की दृढ़ता से ,विषयो के विषधर भी हरे।।

जिस मान में ,सम्मान में,अपमान में रहो ।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु संसरताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा ।

अक्षत आत्मागुण गणधारक ,अक्षत पद की अभिलाषी हो।

तुम संवर पथ की अनुयायी, शुध्दात्म तत्व विश्वासी हो ।।

श्री पूज्यपाद के विमल पाद ,जो पद -पद तुम्हारे सहारे हैं।

उन विमल पदों को उर धारा, जिनसे आपद सब हरे हैं।।

आधि में, व्याधि में, समाधि में रहो ।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान्  निर्वपामिति स्वाहा ।

हे परम ब्रह्मा की आराधक, असिधारा व्रत परिपालक हो।

तुम बाल ब्रह्म वत्तधारि हो, परिपुर्ण ब्रह्म व्रत पालक हो।।

चरित्र चन्द्रिका को पाकर ,चैतन्य कुमुदिनी खिलती है।

चरणों में पुष्प चढ़ाते ही, वैराग्य कौमुदी मिलती हैं।।

जिस ग्रन्थ में ,निर्ग्रन्थ में, जिस पंथ में रहो।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु कामबाण विध्वंशनास पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा ।

निर्वेद भाव का सद व्यंजन, यह तेरा जीवन बना हुआ।

चैतन्य तत्त्व से निर्मित है, शुद्धात्म रसों में सना हुआ।।

आत्मानुभूति मधुरिम मिठास, शुध्दात्म साधिका ने पायी।

वह स्वानुभूति व्यंजन पाऊँ, नैवेद्य चढ़ा यह सुध आयी।।

जिस रोग में ,जिस भोग में, जिस योग में रहो।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु क्षुधारोग विनाशनाय नैवेधं निर्वपामिति स्वाहा ।

सम्यग्दर्शन के दीप जला, दिवाली आप मनाती हैं।

श्रद्धा तुमको ले जाये जहाँ ,एक मात्र वहाँ पर जाती हैं।।

तेरे दर्शन करके माता , मै दीपावली मनाऊँगा।

शुध्दात्म प्रभा से आलोकित, परमात्म तत्त्व प्रकटाऊगा।।

सम्मेद में , गिरनार में ,तिजारा में रहो ।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु मोहांधकार विनाशनाय दीपं  निर्वपामिति स्वाह।

सिध्दष्ट गुणों को ध्याकर के,कर्माष्टक धूप जलती हो।

चैतन्य केंद्र वातायन से ,तुम गुण सुगन्ध फैलाती हो।।

तेरे गुण सौरभ को पाने ,यह भक्त भृमर दौड़े आते।

तेरी अपार महिमा माता, श्रध्दा समेत सादर गाते।।

गुजरात मे ,महाराष्ट्र में, राजिस्थान में रहो।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु  अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा । 

कर्मों के फल अब तक पाए ,सदधर्मों का फल पाना हैं।

अतएव तुम्हारे चरणों में, यह श्रीफल आज चढ़ाया हैं।।

मेरा श्रीफल यह सफल करो ,स्वीकारो नम्र निवेदन यह।

दो मोक्ष महाफल माताजी, मेरा विनम्र आवेदन यह।।

जिस मंत्र में, महामंत्र में ,गुरु मंत्र में रहो ।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका विज्ञाश्री मातु  मोक्षफल प्राप्तये फलं   निर्वपामिति स्वाहा । 

अभिवंदनीय तेरा चया ,नित वंदनीय तव चर्या हैं।

तेरे चर्या चर्चा पाने ,यह अष्ट द्रव्य से अर्चा हैं।।

विज्ञान ज्ञानमति विज्ञश्री ,तीनो ज्ञान अक्षरधारी हैं।

मेरी भविष्य वाणी कहती, यह तीन लोक पर भारी हैं।।

दुकान में , मकान में, श्मशान में रहो।

गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु अनर्धपद प्राप्तये अर्घ्यं    निर्वपामिति स्वाहा ।

जयमाला

दोहा: -माँ विज्ञा प्रज्ञामयी, गुण रत्नों की खान ।

श्रेष्ट समाधि साधिका, तुमको नम्र प्रणाम।।

गुरु आज्ञा में तुम रही प्रज्ञा हुई विशाल।

विज्ञा माँ विज्ञा मिले ,गाऊँ में जयमाल।।

सती चंदनबाला धन्य हुई,ज्यो महावीर को पाकर के।

त्यों चन्द्रकुमारी धन्य हुई,गुरुवर विराग पद आकर के।।

ज्यो महावीर के दर्शन कर,वह बद्ध श्रंखला मुक्त हुई।

त्यों गुरू विराग के दर्शन कर,तुम गृह बंधन से मुक्त हुई।।

तेरी चर्या लख लगा मुझे, ज्यो मूलाचार उतर आया।

तेरी वाणी सुन लगा मुझे, ज्यो सरस्वती का वर पाया।।

नतमस्तक नारी शक्ति का, यह मस्तक तुमसे ऊँचा है।

इस मातृ शक्ति को तुमने ही,समता-ममता सा सींचा है।।

जीवो को जीव समासों को,सम्यक प्रकार पहिचाना है।

तुम परम् अहिंसा व्रतधारी,तुमने रक्षा व्रत ठाना है।।

यह राग-द्वेष अरु मोह भाव,जो है असत्य भाषण कारण।

उन दुर्भावों को त्याग दिया, कर सत्य महाव्रत को धारण।।

हो गाँव-नगर या शहर-डगर,जो पर पदार्थ दिखते प्यारे।

वह बिना दिये न ग्रहण करे, उत्तम अचौर्य व्रत उर धारे।।

पर के प्रति मन में चाह नही,दुर्भाव तजे दुष्काम तजे।

तुम परम् ब्रह्म आराधक हो,व्रत ब्रह्मचर्य निष्काम भतजे।।

निरपेक्ष भावना के बल पर, सम्पूर्ण परिग्रह त्याग किया।

चारित्र भार को धारण कर,तुमने अपरिग्रह स्वीकार किया।।

प्रासुक वसुधा लख चार हाथ, सूरज प्रकाश में गमन करें।

ऐसी ईर्यापथगामी के,हम चरण कमल में नमन करे।।

पैशून्य हास्य पर निंदा या,त्यागा है आत्म प्रशंसा को।

बोले निज पर हितकारी वच,जिनमें आगम अनुसंसा हो।।

कृत-कारित अनुमोदन त्यागी, प्रासकु प्रशस्त आहार करें।

है पराधीन भिक्षा चर्या, फिर भी समता समभाव धरे।।

जब शास्त्र कमंडल ग्रहण करें, या रखती और उठाती है।

तुम यत्न सहित परिमार्जन कर,निज दया भाव दरशाती है।।

एकांत निराकुल प्रासुक भू, हो रोक-टोक भी जहाँ नही।

ऐसी निर्जीव धरा पर ही,मल क्षेपण करती आप कहीं।।

कालुष्य मोह संज्ञा गारव,दुर्भावों का परिहार किया।

व्यवहार और निश्चय दोनों, शुभ मनोगुप्ति को धार लिया।।

सब पाप वचन तुमने त्यागे,त्यागी जग की सब विकथाये।

हो गयीं आप आस्त्रव त्यागी,धर वचन गुप्ति गुण प्रकटाऐ।।

छेदन-भेदन बंधन-मरण,संकोचन और विकोचन कि।

सब पापमयी किया त्यागी,धर काय गुप्ति दुखमोचन की।।

तेरह प्रकार का यह चारित्र,आगम आज्ञा से पाला है।

गुरू चरणाम्बुज को पाकर के,सब पाप दोष तज डाला है।।

व्यवहार चरित इस विधि पाला, निश्चय का आश्रय लिया सदा।

चारित्र ध्वजा धारी माता,पाऊँ चरित्र तुमसा प्रमुदा।।

चउ धातिकर्म से रहित हुए, ज्ञानादि गुणो को पाया है।

परमेष्ठी प्रतम अर्हन्त देव,उनको तुमने शिरनाया है।।

जो अष्ट कर्म को नष्ट करे, अरु अष्ट गुणों को लसा

लोकाग्र शिखर पर जो रहते,उन सिध्देश्वर के गुण गाये।।

जो पंचाचार परायण हैं, पंचेन्द्रिय गज के जेट है।

जो धीर वीर गम्भीर गुणी, आचार्य श्रेष्ठ शिवनेता हैं।।

जिन वचन कथन में शूर वीर, रत्नत्रय गुण के धारी हैं।

निष्कांक्ष भाव से भरे हुए, निर्धन श्रुतधन व्यापारी हैं।।

आराध्य आप आराधन में, लवलीन सदा प्रमुदित मन से।

निर्ग्रन्थ और निर्मोह चित, तुम साधु शरण रहती मन से।।

यह भक्ति मुक्ति का मार्ग कहा, जो आराधन शिव साधन हैं।

यह मोक्ष मार्ग का अनुपम पथ, भक्तो समाधि का साधन हैं।।

चरित्र चन्द्रिका माताजी, चरित्र आपसा उज्ज्वाल हो।

तेरी चर्या को लख-लखकर,मेरी चर्या अति निर्मल हो।।

दोहा:- निर्झरिणी अध्यात्म की, विज्ञाश्री शुभ नाम।

जयमाला के अन्त में, बारम्बार प्रणाम।।

ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु जयमाला पूर्णार्घां निर्वपामिति स्वाहा ।

दोहा:-

मन-वच-तन से नमन, तुमको तीनों काल।

विज्ञार्चन कर हो गया माता आज निहाल।।

।।इत्याशीर्वाद:पुष्पांजलि क्षिपेत्।