(जंबूवृक्षादि १० वृक्ष जिनालय विधान)
(श्री गौतम स्वामी प्रणीत चैत्यभक्ति से उद्धृत)
अकृतानि कृतानि चाप्रमेय—द्युतिमन्ति द्युतिमत्सु मंदिरेषु।
मनुजामरपूजितानि वंदे प्रतिबिम्बानि जगत्त्रये जिनानाम्।।१।।
द्युतिमंडल भासुरांगयष्टी:, प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम्।
भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता, वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमान:।२।।
विगतायुध विक्रियाविभूषा:, प्रकृतिस्था: कृतिनां जिनेश्वराणाम्।
प्रतिमा: प्रतिमागृहेषु कांत्या—प्रतिमा कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे।।३।।
कथयन्ति कषायमुक्ति लक्ष्मीं, परया शान्ततया भवान्तकानाम्।
प्रणमाम्यभिरूप्यमूर्तिमंति, प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम्।।४।।
—हिंदी पद्यानुवाद—चौबोलछंद—
द्युतिकर जिनगृह में अकृत्रिम, कृत्रिम अप्रमेय द्युतिमान।
नर सुर पूजित भुवनत्रय के, सब जिनिंबब नमूँ गुणखान।।१।।
द्युतिमंडल भासुर तनु शोभित, जिनवर प्रतिमा अप्रतिम हैं।
जग में वैभव हेतु उन्हें, वंदूं अंजलिकर शिर नत मैं।।२।।
आयुध विक्रिय भूषा विरहित, जिनगृह में प्रतिमा प्राकृत।
कांती से अनुपम हैं कल्मष, शांति हेतु मैं नमूँ सतत।।३।।
परम शांति से कषाय मुक्ती, को कहती मनहर अभिरूप।
भव के अंतक जिन की प्रतिमा, प्रणमूँ मन विशुद्धि के हेतु।।४।।
—अनुष्टुप्—
जंबूवृक्षादि शाखासु, परिवारद्रुमेष्वपि।
जिनालया जिनार्चाश्च, तांस्ता नौमि शिवाप्तये।।५।।
जंबू—शाल्मलि आदि दश तरु, शाखाओं पर दश मंदिर।
उन परिवार तरू पर भी, जिनगृह प्रतिमा वंदूं शिवकर।।५।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
(समुच्चय पूजा)
—शंभु छंद—
पाँचों मेरू के उत्तर में उत्तर कुरु में तरु पांच कहे।
ये जंबू धात्री पुष्कर हैं इनमें शाश्वत जिनसद्म कहे।।
दक्षिण में पाँच देवकुरु में शाल्मलि तरु पाँच कहे शाश्वत।
इन दश वृक्षों के जिनमंदिर जिनप्रतिमायें पूजूं नितप्रति।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
—अथाष्टकं—गीता छंद—
जल पद्मद्रह का लाय, उज्ज्वल कनक झारी में भरा।
दे धार जिनपद पद्म को, आनंदरस में मन भरा।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गोशीर चंदन घिस सुगन्धित, भर कटोरी में लिया।
जिन पादपद्म चढ़ाय श्रद्धा, भाव से अर्चन किया।।दश.।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अति धवल तंदुल चंद्र की, कांती सदृश भर थाल की।
जिन चन्द्र सन्मुख पुंज धर, नाऊं खुशी से भाल मैं।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मचवुंâद चंपक औ कदंबक, पुष्प निज कर से चुने।
जिनराज पद अरविन्द को, जजतें सभी दु:ख को धुने।।दश.।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गोक्षीर तंदुल शर्करा युत, फेनि शतंछिद्रा१ बनी।
निज क्षुधारोग विनाश हेतु, पूजहूँ त्रिभुवन धनी।।दश.।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर कनक दीपक सुरभितघृत, कार्पास बाती जगमगे।
सब दिशा हों उद्योत उससे, जजों जिनपद सुख जगे।।दश.।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूपदह में धूप दहते, धूम उड़ता दशदिशा।
वसु कर्म जरते देखकर, मोहारि भगता सब दिशा।।दश.।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
फल आम्र कमरख सेव केला, और एला थाल भर।
जिनराज सन्मुख भेंटकर, सिद्धिप्रिया तत्काल वर।।दश.।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वर नीर गंधाक्षत सुमन, चरु दीप धूप फलौघ ले।
शुभ अर्घ सों जिन चरण पूजत, पाप अरि सेना टले।।दश.।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूआदिदशवृक्षजिनालय—जिनबिंबेभ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल ले भृंग में।
श्रीजिनचरण सरोज, धारा देते भव मिटे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के सुम लेय, प्रभुपद में अर्पण करूँ।
कामदेव मद नाश, पाऊँ आनंद धाम मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—दोहा—
भव विजयी जिनराज हैं, भव संकट हरतार।
भविजन तुम गुण गाय के, होते भवदधि पार।।१।।
—शंभु छंद—
जिनभवनों में जिनप्रतिमायें, हैं शाश्वत सिद्ध कही जातीं।
बहु रत्नों की सुन्दर आकृति, छवि वीतराग मन को भाती।।
रत्नों के सिंहासन ऊपर, प्रतिमा पद्मासन से राजें।
भामंडल की कांती ऐसी, जिससे कोटी सूरज लाजें।।२।।
मणि मुक्ता लटक रहीं जिनमें, त्रय छत्र फिरें महिमाशाली।
ढोरें नित चौंसठ चमर यक्ष, निर्झर तम श्वेत चमकशाली।।
वसु मंगल द्रव्य अनूपम हैं, मंगल घट धूप घड़े शोभे।
मणि कंचन की मालायें औ, पुष्पों की माला मन लोभे।।३।।
मानस्तंभों में जिनमूर्ती, दर्शन कर मान गलित होवे।
सब अद्भुत रचना रत्नमयी, दर्शक का मिथ्या मल धोवे।।
प्रतिमंदिर इक सौ आठ बिंब, सब पाप कलाप नशाते हैं।
मुक्ती लक्ष्मी के प्रिय वल्लभ, सब को शिवमार्ग दिखाते हैं।।४।।
बावड़िया कमल सहित शोभें, बहु रत्नों के सुर भवन बने।
सुर अप्सरियां खग खेचरनी, क्रीड़ा करतीं मन मुदित घनें।।
वहां पर नित चारण ऋषिगण भी, नित विहरण करते दीखे हैं।
शुद्धात्म ध्यानारूढ़ कहीं, समरसमय अमृत पीते हैं।।५।।
वर्णादि सहित यह पुद्गल है, इससे सम्बन्ध नहीं मेरा।
यह तन भी मुझसे पृथक कहा, इससे संश्लेष नहीं मेरा।।
इक मोहराज ही इस जग में बहुविध के नाच नचाता है।
जो पर से निज को पृथव्â किये, उसका जग में क्या नाता है।।६।।
इन मिथ्या भ्रांति अविद्या ने, मुझको इस तन में घेरा है।
सम्यक विद्या के होते ही, मिटता भव भव का फेरा है।।
रागादि भाव भी औपाधिक, वे भी जब मुझसे भिन्न कहें।
फिर धन गृह सुत मित्रादिकजन, वे तो बिल्कुल ही पृथक रहें।।७।।
हे नाथ! आपकी भक्ती से, मुझमें वह शक्ती आ जावे।
मैं पर से निज को भिन्न करूँ, यह सम्यक युक्ति आ जावे।।
चैतन्य चमत्कारी आत्मा चिंतामणि कल्पतरू निधि ही।
मैं उसमें ही बस रम जाऊँ, समरस पीयूष पिऊँ नित ही।।८।।
दुख इष्ट वियोग अनिष्ट योग, भय शोकादिक का भान न हो।
केवल सुखदर्शन ज्ञानवीर्य धारी आत्मा का ध्यान रहो।।
परमानंदामृत निर्झर में, स्नान करूँ मल धो डालूँ।
अपने अनन्तगुण पुंजरूप, शिवपद साम्राज्य तुरत पालूँ।।९।।
जो दर्शन पूजन करते हैं, वे रत्नत्रय निधि पाते हैं।
जो वंदन करें परोक्ष सदा, वे भी स्वातम सुख पाते हैं।।
बस नाथ! सुयश तुम सुन करके, चरणों में आन पुकारा है।
अब मुझ को भी प्रभु पार करो, बस तेरा एक सहारा है।।१०।।
इतनी ही आशा लेकर मैं, हे नाथ! शरण में आया हूँ।
अब िंकचित भी ना देर करो, भव भव दु:ख से अकुलाया हूँ।।
बहु जन्म अनंतों में संचित, अब संचय शीघ्र समाप्त करो।
भगवन् ! सुज्ञानमती लक्ष्मी देकर अब मुझे कृतार्थ करो।।११।।
—घत्ता—
सब कर्म निकंदा, हर भव फंदा, आनंदकंदा जो ध्यावें।
सजू ‘ज्ञानमती’ कर निज संपति भर, मुक्तिरमावर सुख पावें।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ-उत्तरकुरुदेवकुरुस्थित-जंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य: जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
-अथ स्थापना—गीताछन्द-
गिरि मेरु के उत्तर दिशी, उत्तरकुरु शोभे अहा।
उसमें सुदिक् ईशान के, जंबूतरू राजे महा।।
दक्षिण दिशा में देवकुरु, नैऋत्य कोण सुहावनी।
तरु शाल्मलि शुभरत्नमय, सुन्दर दिखे शाखाघनी।।१।।
—दोहा—
दोनों तरु की शाख पर, दो श्री जिनवर गेह।
आह्वानन कर मैं जजूूँ, सदा हृदय धर नेह।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरो: ईशाननैऋत्यकोणयो: जम्बूशाल्मलिवृक्षसम्बन्धि- जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरो: ईशाननैऋत्यकोणयो: जम्बूशाल्मलिवृक्षसम्बन्धि- जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरो: ईशाननैऋत्यकोणयो: जम्बूशाल्मलिवृक्षसम्बन्धि- जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
-अष्टक-अडिल्लछंद-
सुरगंगा को नीर, सुरभि प्रासुक किया।
जिनपद धारा देय, सकल मल क्षय किया।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष, तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहे शिव धाम को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि घनसार, सुकुंकुम गंध ले।
सिद्धनि के प्रतिबिंब, चरण को चर्च ले।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष, तने जिनधाम को।
जो पूजे धर प्रीति, लहे शिव धाम को।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से धौत सुअक्षत, मुुक्ताफल समा।
पुंज धरूँ जिनसन्मुख, भक्ती अनुपमा।।जंबू.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही चमेली कमल, केवड़ा फूल ले।
प्रभु के चरण चढ़ाऊँ, भव के दुख टले।।जंबूू.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सद्यजात घेवर बावर मोदक घने।
चरु की पूजा नित्य क्षुधा व्याधी हने।।जंबू.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप की ज्योति, दशों दिश तम हरे।
अंतर भेद विज्ञान, प्रगट हो भ्रम टरे।।जंबू.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप अगनि में खेय, धूम दशदिश उड़े।
कर्म पुंज प्रज्वले, सतत आनंद बढ़े।।जंबू.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के परिपक्व, सरस फल लाय के।
प्रभु की पूजा करुँ हरष गुण गाय के।।
जंबू शाल्मलि वृक्ष तने जिनधाम को।
जो पूजें धर प्रीति, लहे शिव धाम को।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वारि सुचंदन अक्षत, फूल चरु मिले।
दीप धूप शुचि उत्तम, फल युत अर्घ्य ले।।जंबू.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजम्बूशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देत, शांति करो सब लोक में ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अर्घ्य, यश सौरभ चहुँदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य-सोरठा—
जंबू शाल्मलि वृक्ष, तिनके जिनगृह को जजूँ।
पुष्पांजलि कर नित्य, जो पूजें सो शिव लहें।।१।।
।।अथ जम्बूवृक्षशाल्मलिवृक्षस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
—गीताछन्द—
‘जम्बूतरू’ की उत्तरी, शाखा विषे जिनधाम है।
सब देव देवी करें अर्चा, मैं जजूँ इह थान है।।
वर नीर चंदन आदि वसुविध, द्रव्य थाली में लिया।
संसार रोग निवार स्वामी, अर्घ्य से पूजन किया।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजंबूवृक्षस्य उत्तरशाखायां जिनालयस्थसर्व-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जम्बूतरू’ परिवार तरू, चारों तरफ से घेर के।
इक लाख चालिस सहस इक सौ, हैं उनीस प्रमाण से।।
इन सभी तरू में देवगृह में, श्री जिनालय सासते।
इन जिनगृहों जिनर्मूितयों को, पूजते भव नाशते।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजंबूवृक्षस्य एकलक्षचत्वािंरशत्सहस्रएकशत—एकोनिंवशतिपरिवारवृक्षजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘द्रुम शाल्मलि’ की दक्षिणी, शाखा उपरि जिनगेह है।
योगी सदा ध्याते उन्हें, हम भी जजें धर नेह है।।
वर नीर चंदन आदि वसुविध, द्रव्य थाली में लिया।
संसार रोग निवार स्वामी, अर्घ्य से पूजन किया।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिशाल्मलिवृक्षस्य दक्षिणशाखायां जिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाल्मलितरू को घेर कर, परिवार वृक्ष सुशोभते।
इक लाख चालिस सहस इक सौ, हैं उन्नीस प्रमाण से।
इन वृक्ष में भी देवभवनों, में जिनालय अकृत हैं।
उन सभी जिनगृह को जजूं, जिनिंबब पूजूँ भक्ति से।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिशाल्मलिवृक्षस्य एकलक्षचत्वािंरशत्सहस्रएक—शतैकोनविंशतिपरिवारवृक्षजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
जंबू शाल्मलि वृक्ष पर, दो जिनमंदिर सिद्ध।
पूर्ण अर्घ्य ले मैं जजूँ, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजंबूशाल्मलिवृक्षस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोय लाख अस्सी सहस, दो सौ अड़तिस रम्य।
जजूं सर्व परिवार तरू, के जिनगृह जिनिंबब।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसम्बन्धिजंबूशाल्मलिपरिवारवृक्षजिनालय-स्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—सोरठा—
तरु की शाखा मांहि, रत्नमयी जिनबिंब हैं।
तिनकी यह जयमाल, भक्ति भाव से मैं पढ़ूँ।।१।।
—नरेन्द्र छंद—
जंबूतरु का स्वर्णिम स्थल, पांच शतक योजन है।
इस थल का परकोटा कांचन-मयी मनो मोहन है।।
पीठ आठ योजन का ऊँचा, मध्य माहिं चांदी का।
इस पर जम्बूवृक्ष अकृत्रिम, पृथ्वीमय रत्नों का।।२।।
यह तरु तुंग आठ योजन है, वङ्कामयी जड़ जानो।
मणिमय तना हरित मोटाई, एक कोश परमानो।।
तरु की चार दिशाओें में हैं, चार महाशाखायें।
छह योजन की लंबी इतने, अंतर से लहरायें।।३।।
मरकत कर्वेâतन मूँगा, कंचन के पत्ते उत्तम।
पांच वर्ण रत्नों के अंकुर, फल अरु पुष्प अनूपम।।
इसमें फल जामुन सदृश हैं, कोमल चिकने दिखते।
रत्नमयी हैं फिर भी अद्भुत, पवन लगत ही हिलते।।४।।
उत्तर शाखा पर जिन मंदिर, सुरगृह त्रय शाखा पे।
सम्यक्त्वी आदर व अनादर, व्यंतर रहते उनपे।।
तरु को चारों तरफ घेर कर, बारह पद्म देवियाँ।
उनके अंतराल में तरु की, परिकर वृक्ष पंक्तियां।।५।।
एक लाख चालीस हजार, इक सौ उन्नीस कहाएं।
इन जंबू परिवार वृक्ष पर, सुर परिवार रहायें।।
मेरू की ईशान दिशा में, नीलाचल के दाएं।
माल्यवन्त के पश्चिम में, सीता के पूर्व कहाएं।।६।।
तरु स्थल के चारों तरफे, त्रय वन खंड कहाते।
फल फूलों युत सुरमहलों युत, जल वापी युत भाते।।
इस द्रुम के जिनगृह में इक सौ-आठ जिनेश्वर प्रतिमा।
इसी तरह शाल्मली वृक्ष की जानो सारी रचना।।७।।
शाल्मलि तरु के अधिपति व्यंतर, वेणु वेणुधारी हैं।
ये सुर सम्यक्त्वी जिनमत के, प्रेमी गुणधारी हैंं।।
जितने जंबू शाल्मलि तरु हैं, उतने जिनमंदिर हैंं।
क्योंकि सभी पर सुर रहते हैं, सबमें जिनमंदिर हैं।।८।।
दो चैत्यालय मुख्य अकृत्रिम, हैं स्वतन्त्र दो तरु के।
उनकी अरु सब जिन प्रतिमा की, करूँ वंदना रुचि से।।
सुर किन्नरियां नित गुण गातीं, वीणा की लहरों से।
दर्शन करके नर्तन कीर्तन, करतीं भक्ति स्वरों से।।९।।
—घत्ता—
जय जय जिन प्रतिमा अद्भुत महिमा, पढ़े सुने जो जयमाला।
जय ‘ंज्ञानमती’ श्री सिद्धिवधू प्रिय, सो नर पावे खुशहाला ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिजंबूशाल्मलिवृक्षस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्यो जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। परिपुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद—
विजयमेरु के उत्तरकुरु में, वृक्ष धातकी सोहे।
इसी मेरु के देवकुरु में, शाल्मलि तहँ मन मोहे।।
इनकी एक एक शाखा पर, जिनमंदिर सुखकारी।
इन दो मंदिर की जिनप्रतिमा, पूजों अघतम हारी।।१।।
—दोहा—
तरु के सब जिनराज की, आह्वानन विधि ठान।
आवो आवो नाथ! अब, करो सकल दु:ख हान।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षसंबंधीद्वयजिनालयस्थ- सर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षसंबंधीद्वयजिनालयस्थ-सर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षसंबंधीद्वयजिनालयस्थ-सर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
—अथाष्टकं—नाराच छंद—
हिमाद्रि गंगनीर लाय, स्वर्ण भृंग में भरूँ।
जिनेश पादपद्म धार, देत ही तृषा हरूँ।।
तरू तने जिनेन्द्र को, सुरेन्द्र पूजते वहाँ।
महान भक्ति भाव धार, मैं जजूँ उन्हें यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंध अष्टगंध लेय, हर्ष भाव ठानिये।
जिनेश पादपद्म चर्च, मोह ताप हानिये।।
तरू तने जिनेन्द्र को, सुरेन्द्र पूजते वहां।
महान भक्ति भाव धार, मैं जजूं उन्हें यहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कमोद जीरिका अखंड, शालि धान्य लाइये।
सुपुंज आप पास दे, अखंड सौख्य पाइये।।तरू तने.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुलाब कुन्द पारिजात, पुष्प अंजली लिये।
जिनेश पाद पूज कामदेव को हनीजिये।।तरू तने.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमिष्ट फेनि लाडु व्यंजनादि भांति भांति के।
जिनेशपाद पूजते, भगे क्षुधा पिशाचि के।।तरू तने.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखंड ज्योतिवान दीप, स्वर्ण पात्र में जले।
जिनेन्द्र पाद पूजते हि, मोहध्वांत भी टले।।तरू तने.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशांग धूप लेय अग्नि, पात्र में सुखेइये।
जिनेश सन्निधी तुरंत कर्म भस्म देखिये।।तरू तने.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
इलायची लवंग दाख, औ बदाम लाइये।
जिनेश को चढ़ाय मुक्ति, वल्लभा को पाइये।।
तरू तने जिनेन्द्र को, सुरेन्द्र पूजते वहां।
महान भक्ति भाव धार, मैं जजूं उन्हें यहाँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादि अष्ट द्रव्य लेय अर्घ्य को बनाइये।
अनघ्र्य सौख्य हेतु नित्य नाथ को चढ़ाइये।।तरू तने.।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरूसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षास्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देय, शांति करो सब लोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अप्र्य, यश सौरभ चहुुुंदिश भ्रमें।।११।
दिव्यपुष्पांजलि:।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य—दोहा—
वृक्ष धातकी शाल्मली,पूर्वधातकी मािंह।
उनके जिनगृह नित जजूँ, पुष्पांजली चढ़ाहिं।।१।।
इति विजयमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छन्द—
विजयमेरु ईशान कोण में, वृक्ष आंवले जैसा।
तरु की उत्तर गत शाखा पर, जिनगृह अनुपम वैसा।।
यतिपति वंदित जिनवर प्रतिमा, कलिमल नाश करे हैं।
पूुजन करते भविजन मिलकर, यम का पाश हरे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिधातकीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजय मेरु ईशान दिशा में, वृक्ष धातकी सोहै।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, सुरगण का मन मोहें।।
धात्रीतरु परिवार वृक्ष, दो लाख सहस अस्सी हैं।
दो सौ उनतालिस इन सबमें, प्रतिमा शाश्वतिकी हैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिधातकीवृक्षस्य द्विलक्षाशीतिसहस्रद्विशतएकोन- त्रिंशत्परिवारवृक्षजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु नैऋत्य कोण मेें, शाल्मली द्रुम भारी।
इसकी दक्षिणगत शाखा पे, जिनमंदिर भवहारी।।
गणधर भी नित ध्याते रहते, मन में उन प्रतिमा को।
जनम जनम अघ नाशन हेतू, हम भी पूजे उनको।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजय मेरु नैऋत्य कोण में, शाल्मलि तरु परिकर नित।
दोय लाख अस्सी हजार, दो सौ उनतालीस शाश्वत।।
सब वृक्षों में देवभवन में, जिनगृह जिनप्रतिमायें।
भक्ति भाव से अर्घ्य चढ़ाकर, हम अनुपम फल पायें।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिशाल्मलिवृक्षस्य द्विलक्षाशीतिसहस्रद्विशतैकोन—त्रिंशत्परिवारवृक्षजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—दोहा—
पूर्वधातकी खंड में, धातकि शाल्मलि वृक्ष।
इनके श्री जिनभवन को, पूजूँ कर मन स्वच्छ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन द्वय के परिवार तरु, पांच लाख अति रम्य।
साठ सहस अरु चार सौ, अट्ठत्तर तरु रम्य।।१।।
सबमें सुरगृह मान्य हैं, सबमें जिनवर धाम।
सबमें जिनप्रतिमा जजूँ, शत शत करूँ प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीपरिवारवृक्षस्थित—जिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—नरेन्द्र छंद—
विजयमेरु ईशानदिशा में, वृक्ष धातकी सोहे।
नैऋत दिश में वृक्ष शाल्मलि, सुरगण का मन मोहे।।
इक इक के परिवार तरु दो, लाख सहस अस्सी हैं।
दो सौ अड़तीस इतने सब में, प्रतिमा शाश्वतकी हैं।।१।।
—नाराच छंद—
जिनेश बिंब एक सौ सुआठ सर्व वृक्ष में।
प्रमुख्यता धरे महान एक ही तरु इमेें।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।२।।
अनादि हो अनन्त हो प्रसिद्ध सिद्ध रूप हो।
दयाल धर्मपाल तीन काल एक रूप हो।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।३।।
अलोक लोक में प्रधान तीन लोक नाथ हो।
अनेक रिद्धि के धनी सुभक्ति के सनाथ हो।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।४।।
महान दीप्तिमान मोहशत्रु को कृपाण हो।
प्रसन्न सौम्य आस्य हो पवित्र हो पुमान हो।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।५।।
दिनेश२ तें विशेष तेज की महान राशि हो।
कुमोदनी भवीक हेतु वें सुधानिवास३ हो।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।६।।
भवाब्धि डूबते तिन्हें तुम्हीं सुकर्णधार हो।
गुणौघ रत्न के समुद्र सार में सु सार हो।।
नमो नमो जिनेश तोहि धर्म के स्वरूप हो।
कलंक पंक क्षालने सदा सुतीर्थ रूप हो।।७।।
—दोहा—
तुम गुण गण मणि अगम हैं, को गण पावे पार।
जो गुण लव कंठहिं धरे, सो उतरे भव पार।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिंबेभ्य: जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—अथ स्थापना—हरिगीतिका छंद—
(चाल—सम्मेदगढ़ गिरनार....)
वरद्वीप धातकि में अपरदिश, बीच सुरगिरि अचल है।
ताके विदिश ईशान में, शुभ धातकी द्रुम अतुल है।।
सुरगिरी के नैऋत्य शाश्वत, शाल्मली द्रुम सोहना।
द्वय वृक्ष शाखा पर जिनालय, पूजहूँ मन मोहना ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीद्वयवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीद्वयवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीद्वयवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
—अथाष्टक—
जल अमल ले जिनपाद पूजू, कर्म मल धुल जायेगा।
आत्मीक समता रस विमल, आनंद अनुभव आयेगा।।
पृथ्वीमयी दो वृक्ष के, जिनगेह मणिमय मूर्तियाँ।
जयवंत होवें नित्य ही, चिन्तामणी जिनमूर्तियाँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सुगंधित ले जिनेश्वर, पद जजूँ आनन्द से।
स्वात्मानुभव आल्हाद पाकर, छूटहूँ जग द्वन्द से।।
पृथ्वीमयी दो वृक्ष के, जिनगेह मणिमय मूर्तियां।
जयवंत होवें नित्य ही, चिंतामणी जिनमूर्तियां।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदाकिरण सम धवल तंदुल, पुंज जिन आगे धरूँ।
वर धर्म शुक्ल सुध्यान निर्मल, पाय आतम निधि वरूँ।।पृथ्वी.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार चंपक पुष्प सुरभित, लाय जिनपद पूजते।
निज आत्मगुण कलिका खिले, जन भ्रमर तापे गूंजते।।पृथ्वी.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक पुआ बरफी इमरती, लाय जिन सन्मुख धरें।
आत्मैकरस पीयूष मिश्रित, अतुल आनंद भव हरे।।पृथ्वी.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक शिखा उद्योतकारी, जिन चरण में वारना।
अज्ञान तिमिर हटाय अंतर, ज्ञान ज्योती धारना।।पृथ्वी.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध धूप मंगाय स्वाहा१ नाथ को अर्पण किया।
वसु कर्म स्वाहा हेतु ही, निज आत्म को तर्पण किया।।पृथ्वी.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अनार गन्ना, लाय जिन पूजा करूँ।
वर मोक्ष फल की आश लेकर, कर्म कंटक परिहरूं।।
पृथ्वीमयी दो वृक्ष के, जिनगेह मणिमय मूर्तियां।
जयवंत होवें नित्य ही, चिंतामणी जिनमूर्तियां।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प नेवज, दीप धूप फलादि ले।
जिन कल्पतरु पूजत मनोवांछित सकल फल झट मिलें।।पृथ्वी.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देत, शांति करो सब लोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल वकुल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अप्र्य, यश सौरभ चहुंदिश भ्रमे।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य—सोरठा—
अचलमेरु ईशान, वृक्ष आंवले सम कहा।
नैऋत शाल्मलि जान, जिनगृह पूजूँ पुष्प ले।।१।।
इति श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—हरिगीतिका—
इस धातकी तरु उत्तरी, शाखा विषे जिनगृह महा।
देवाधिदेव जिनेन्द्र की, प्रतिमा रतनमयि हैं वहां।।
सुरभित पवन प्रेरित जिनालय, मणि ध्वजा नित फरहरें।
वर अर्घ्य लेकर पूजते ही, कर्म शत्रू थर हरें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरोरीशानकोणे धातकीवृक्षजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस धातकी तरु के कहे, परिवारतरु दो लाख भी।
अस्सी सहस दो शतक अड़तीस, सर्व में सुर रहें भी।।
सब देवगृह में जिनभवन, जिनमूर्तियाँ शाश्वत कहीं।
हम पूजते हैं भक्ति से, इस भक्ति से शिवपंथ ही।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीवृक्षस्य द्विलक्षाशीतिसहस्रद्विशतएकोन- त्रिंशत्परिवारवृक्षजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तरु शाल्मली की दक्षिणी, शाखा उपरि जिन धाम है।
मृत्युंजयी जिनदेव की, प्रतिमा वहां अभिराम है।।
सुरभित पवन प्रेरित करें, जिनगृह ध्वजा नित फरहरें।
वर अर्घ्य लेकर पूजते ही, कर्म शत्रू थरहरें।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरोर्नैऋत्यकोणे शाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम सुधातकिखंड में शुभ, शाल्मलीतरू अति दिपे।
परिवार तरु दो लाख अस्सी, सहस दो सौ अड़तिसे।।
इनमें सभी में देवगृह में, श्री जिनालय मूर्तियां।
हम पूजते हैं अर्घ्य लेके, प्राप्त होंगी सिद्धियां।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिशाल्मलीवृक्षस्य द्विलक्षाशीतिसहस्रद्विशत- एकोनत्रिंशत्परिवारवृक्षजिनालयस्थसर्वजिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
अचलमेरु के द्वय तरू, धातकि शाल्मलि जान।
दोनों के जिनगेह को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थसर्व-जिनबिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वयतरु के परिवार तरू, सबमें जिनवर धाम।
देवभवन पण लाख अरु, साठ हजार प्रमाण।।
चार शतक अठ्ठत्तरे, सबमें जिनवर बिंब।
जिनगृह जिनप्रतिमा जजूँ, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीपरिवारवृक्षस्थितजिनालय—स्थसर्वजिनबिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
जय जय अकृत्रिम जिनभवन, अघहरण जग चूड़ामणी।
जय जय अकृत्रिम जिनप्रतिम, सब मूर्तियां चिन्तामणी।।
जय जय अनादि अनन्त अनुपम, त्रिभुवनैक शिखामणी।
जय मोह अहि के विष प्रहारण, नाथ! तुम गारुत्मणी१।।१।।
सुरगिरि अचल उत्तर दिशी, उत्तर कुरू है भोगभू।
तहँ धातकी तरु थल वृहत् , पे वेदिका अरु पीठ जू।।
राजत उतुङ्ग महा मनोहर, मणिमयी ये तरु हरे।
उनपे अकृत्रिम जिनसदन, मेरे सकल कलिमल हरें।।२।।
तरु चार दिश की चार शाखा, मुख्य हैं उन एक में।
जिनगृह अकृत्रिम शोभता, सुरगृह बने हैं तीन में।।
इनमें सदा व्यंतर रहें, सम्यक्त्व रत्नों युत भने।
परिवार तरु अगणित कहे, परिवार सुर उनपे घने।।३।।
फल मणिमयी है आंवले-सम पत्तियाँ मरकतमणी।
कोंपल पदममणि के बने, बहु फूल नाना वर्णनी।।
सब देवगृह में भी सदा, जिनधाम अनुपम राजते।
उनकी करें जो वन्दना, सब पाप क्षण में नाशते।।४।।
जिनराज सिंहासन रतन-मणियों जड़ित अति सोहना।
त्रय छत्र में मोती लटकते, शशिकिरण सम मोहना।।
चौंसठ युगल सुर हाथ में, चामर लिये हैं भाव से।
वर आठ मंगल द्रव्य सब, जिनराज सन्निध भासते।।५।।
बहु देव देवी अप्सरायें, इन्द्र गण भी आवते।
जिनवन्दना गुणगान पूजत, करत शीश नवावते।।
संगीत बाजें विविध बजते किन्कणी घंटा घने।
वीणा बजाते नृत्य करते, ताल दे देकर घने।।६।।
खेचर युगलिया भक्ति से, जिनवंदना करते वहां।
नर नारियां भूचर सदा, विद्या के बल फिरते वहां।।
आकाशगामी ऋद्धि से ऋषिगण वहां विचरण करें।
जिनवंदना से बहु जनम के पाप तत्क्षण परिहरेंं।७।।
गणधर सुव्रतधर चक्रधर, हलधर गदाधर सर्वदा।
श्रुतधर अशनिधर कुलधरा, जिन भक्ति करते शर्मदा।।
अध्यात्म योगी वीतरागी, शुद्ध आतम ध्यावते।
वर निर्विकल्प समाधिरत, हो परम आनन्द पावते।।८।।
मैं भक्ति श्रद्धा भाव से, हे नाथ! तुम शरणा लिया।
बस मृत्यु मल्ल पछाड़ने को, तुम निकट धरना दिया।।
हे भक्त वत्सल ! दीनबन्धु! कृपा मुझ पर कीजिये।
हे नाथ! अब तो मुझे, केवल ‘ज्ञानमति’ श्री दीजिये।।९।।
—दोहा—
शाश्वत श्री जिनगेह के, स्वयं सिद्ध जिनबिंब।
मन वच तन से पूजहूँ, झड़े कर्म कटु निंब।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री अचलमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलीवृक्षस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ- जिनबिंबेभ्यो जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद—
पुष्करतरु से अंकित पुष्कर, द्वीप जु सार्थक नामा।
सुरगिरि के दक्षिण-उत्तर में, भोग भूमि अभिरामा।।
उत्तरकुरु ईशान कोण में, पद्मवृक्ष मन मोहे।
देवकुरु नैऋत में शाल्मलि, तरु पे सुरगण सोहें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्
अथाष्टकं—लक्ष्मीधरा छंद—(नाथ तेरे कभी होते...)
तीर्थवारी महास्वच्छ झारी भरी।
तीर्थकर्तार के पाद धारा करी।।
दो तरू शाख पे दोय जिन मंदिरा।
पूजते जो उन्हें लेय शिव इंदिरा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णद्रव के सदृश कुंकुमादी लिये।
राग की दाह को मेटने पूजिये।।दो तरु.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सोम रश्मी सदृश श्वेत अक्षत लिये।
आत्मनिधि पावने पुंज रचना किये।।दो तरु.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुन्द मंदार मल्ली सुमन ले लिये।
मारहर नाथ पादाब्ज में अर्पिये।।दो तरु.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य:पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गूझिया औ तिकोने भरे थाल में।
भूख व्याधी हरो नाथ पूजूँ तुम्हें।।दो तरु.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रज्वलित दीप लेके करुं आरती।
चित्त में हो प्रगट ज्ञान की भारती।।दो तरु.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: दीपंं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध ले अग्नि में खेवते।
मोह शत्रू जले आप पद सेवते।।दो तरु.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम नींबू नरंगी सु अंगूर हैं।
पूज लें आत्म पीयूष को पूर हैं।। दो तरु.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य:फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि ले स्वर्ण थाली भरुँ।
नाथ पद पूजते सर्वसिद्धी वरूं।।
दो तरू शाख पे दोय जिन मंदिरा।
पूजते जो उन्हें लेय शिव इंदिरा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षशाल्मलीवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देत, शांति करो सब लोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अप्र्य, यश सौरभ चहुँ दिश भ्रमें।।११।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य—सोरठा—
पृथ्वीकायिक वृक्ष, सर्वरत्नमय सोहने।
ताके श्रीजिन सद्म, मनवचतन से पूजहूँ।।१।।
इति श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छंद—
मंदरमेरु से इशान में, पद्मवृक्ष रत्नों का।
उसकी उत्तर शाखा पे है, जिनमंदिर भव नौका।।
जलगंधादिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज रचाऊँ।
परमअतीन्द्रिय ज्ञान सौख्यमय, अविचल पद को पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिईशानकोणे पुष्करवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कर तरु परिवार वृक्ष हैं, रत्नमयी अतिसुंदर।
पांच लाख अरु साठ सहस, चउशत उन्यासी मनहर।।
सबमें देवभवन में जिनगृह, जिनप्रतिमा शाश्वत हैं।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूं, पाऊं स्वात्मामृत मैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षस्य पंचलक्षषष्टिसहस्रचतु:शत—एकोनाशीतिपरिवारवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगिरि के नैऋत्य कोण में, शाल्मली तरु जानो।
उसकी दक्षिण शाखा पर, जिनगेह अकृत्रिम मानो।।
जलगंधादिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज रचाऊँ।
परमअतीन्द्रिय ज्ञान सौख्यमय, अविचल पद को पाऊँ।।।।३।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिनैऋत्यकोणेशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाल्मलि तरु परिवार वृक्ष भी, शाश्वत रत्नमयी हैं।
पांच लाख अरु साठ सहस, चउ सौ उन्यासी ही हैं।।
सबमें देवभवन उन सबमें, जिनगृह जिनप्रतिमायें।
हम पूजें नित अर्घ्य चढ़ाकर, शाश्वत सुख पा जायें।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिशाल्मलीवृक्षस्य पंचलक्षषष्टिसहस्रचतु:शत—एकोनाशीतिपरिवारवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
पुष्कर शाल्मलि वृक्ष के, अमित वृक्ष परिवार।
तिन सबके जिन गेह को, पूजूँ भवदधि तार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कर शाल्मलि वृक्ष के, शाश्वत तरु परिवार।
ग्यारह लाख प्रमाण अरु माने बीस हजार।।१।।
नव सौ अट्ठावन प्रमित, सबमें सुरगृह मान्य।
जिनगृह जिनप्रतिमा जजूं, शत शत करूं प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिपरिवारवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—सारेठा—
स्वयंसिद्ध जिनराज, अकृत्रिम जिनगेह में।
पूर्ण करो मम आश, गाऊँ अब जयमालिका।।१।।
तोटक छंद (चाल—जय केवल भानु....)
जय पुष्कर वृक्ष महाफलदं, जय शाल्मलि वृक्ष महासुखदं।
जय वृक्ष तने जिनमंदिर को, जय सिद्धिवधू प्रियजिनवर को।।२।।
तरु में मरकत मणि नीलम के, कर्केतन स्वर्णमयी पत्ते।
बहुवर्ण रतन मय अंकुर हैं, रतनों के फल औ पुष्प कहें।।३।।
तरु सिद्ध अनादि अनंत कहें, तहं चामर किन्कणि आदि रहें।
अति तुंग सघन द्रुम शोभ रहें, शुभ वायु चले हिलते तरु हैं।।४।।
इन शाख विषे जिनमंदिर जी, महिमा वरणंत पुरंदर जी।
सुर इंद्र नरेंद्र फणीन्द्र सदा, गुण गावत भक्ति भरे सु मुदा।।५।।
जिननाथ! त्रिलोक पिता तुम हो, तुमही भववारिधि तारक हो।
बिन कारण बंधु तुम्हीं प्रभु हो, तिहुंलोक तने तुमही गुरु हो।।६।।
तुम शंकर विष्णु विधी तुमही, तुम बुद्ध हितंकर ब्रह्म तुम्हीं।
भुवनैक शिरोमणि देव तुम्हीं, शरणागत रक्षक देव तुम्हीं।।७।।
तुम ज्योति चिदंबर मुक्तिपती, तुम पूर्ण दिगंबर विश्वपती।
सरवारथ सिद्धि विधायक हो, समता परमामृत दायक हो।।८।।
तुम भक्त मनोरथ पूर्ण करें, क्षण में निज संपति पूर्ण भरें।
यमराज महाभट चूर्ण करें, वर ‘ज्ञानमती’ सुख तूर्ण वरें।।९।।
—घत्ता—
तुम जिनवर भास्कर, कर्म भरम हर, शिव संपति कर शरण लही।
जो तुम गुणमाला, पढ़े रसाला, सो पावहिं शिव सौख्य मही।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीमंदरमेरुसंबंधिधातकीशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्यो जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद—
(चाल—इह विधि राज्य करे.......)
पश्चिम पुष्कर अर्ध द्वीप में, मध्य कनक गिरि सोहे।
ताके दक्षिण उत्तर दिश में, भोगधरा मन मोहें।।
उत्तर कुरु ईशान कोण में, पुष्करवृक्ष सुहावे।
दक्षिण देवकुरु नैऋत दिश, शाल्मलि तरु मन भावे।।१।।
—दोहा—
दोनों तरु की शाख पर, भूकायिक जिनगेह।
जिन मूर्ती की थापना, करुँ भक्ति भर नेह।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्ष-स्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्ष-स्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्ष-स्थितजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्
—अथाष्टकं—रोला छन्द—(चाल—मेरी भावना.......)
पद्माकर को जल अतिशीतल, पद्म पराग सुवास मिला।
रागभाव मल धोवन कारण, धार करूँ मन कंज खिला।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियाँ आन पड़े।
जिनपद पूजन से नश जाते, कर्म शत्रु भी बड़े-बड़े।।पृथ्वी.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र चंद्रिका सम सित तंदुल, पूंज चढ़ाऊँ भक्ति भरे।
अमृत कण सम निज समकित गुण, पाऊँ अतिशय शुद्ध खरे।।पृथ्वी.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
कामवाण विजयी जिनवल्लभ, चरण जजत नवलब्धि मिले।।पृथ्वी.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलाकंद पयसार लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, जिनपद पंकज पूज किये।।पृथ्वी.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तम नाश करे।
दीपक से करते जिन पूजन, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।पृथ्वी.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नि पात्र में धूप जलाकर अष्ट कर्म को दग्ध करें।
निज आतम के भावकर्म मल, द्रव्य कर्म भी भस्म करें।।पृथ्वी.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर, अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरे।
नव क्षायिक लब्धी फल इच्छुक, पूजूं तुम पादाब्ज खरे।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
त्रिभुवन पूजित पद के हेतू, तुम पदवारिज अर्घ्य किया।।पृथ्वी.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देत, शांति करो सब लोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
वकुल मालती फूल, सुरभित निजकर से चुनें।
जिनपद पंकज अप्र्य, यश सौरभ चहुंदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य—सोरठा—
मुक्तिवधू भरतार, श्रीजिनवर के बिम्ब हैं।
पूजूूं शिव करतार, पुष्पांजली चढ़ाय के।।१।।
इति श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिद्वयवृक्षस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
—रोला छंद—
पश्चिम पुष्कर द्वीप, सुरगिरि के ईशाने।
पदम वृक्ष की शाख, उत्तर दिश परधाने।।
तापे श्रीजिनगेह नाना रत्नमयी है।
मृत्युंजयि जिन बिंब, पूजूँ सौख्य मही है।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्करतरु परिवार, पणलख साठ सहस हैं।
चार शतक उन्यासि, सबमें देवभवन हैं।।
सबमें जिनगृह नित्य, उन सबमें जिनप्रतिमा।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊं सौख्य अनुपमा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करवृक्षस्य पंचलक्षषष्टिसहस्रचतु:शत—एकोनाशीतिपरिवारवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकाचल नैऋत्य शाल्मलि द्रुम मन भावे।
दक्षिण शाखा उपरि, जिनवर भवन सुहावे।।
उनके श्री जिनबिम्ब, अकृत्रिम अविकारी।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ शिवतिय प्यारी।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाल्मलि तरु परिवार, पुष्कर तरु सम माने।
पांच लाख अरु साठ, सहस चार सौ जाने।।
उन्यासी सब वृक्ष, सबमें देवभवन हैं।
सबमें जिनगृह नित्य, जिनवर बिंब जजूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिशाल्मलीवृक्षस्य पंचलक्षषष्टिसहस्रचतु:शत—एकोनाशीतिपरिवारवृक्षस्थितजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—रोला छंद-
इन तरु के परिवार, अगणित शास्त्र बखाने।
उन सब में सुरवृंद, वैभव संयुत मानें।।
प्रतिदेवन१ गृह माहिं, जिनगृह शाश्वत जानों।
पूरण अर्घ्य बनाय, पूूजत ही शिव थानो।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसपरिवारपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिना-लयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन द्वय तरु परिवार, वृक्ष सुग्यारस लक्षा।
बीस सहस नवशतक अट्ठावन तरु नित्या।।
सबमें जिनगृह नित्य, जिनप्रतिमा रत्नों की।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय, जजत मिले निज सुख भी।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिपरिवारवृक्षस्थितजिना-लयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
इन ढाई द्वीप के पंचमेरु, संबंधी वृक्ष अकृत्रिम हैं।
छत्तीस लाख अरु सहस तेतालिस, एक सौ बीस प्रमाण कहे हैं।।
दश जिनमंदिर अकृत्रिम, सबमें देवभवन शाश्वत हैं।
सबमें जिनगृह जिनप्रतिमायें, सौ सौ बार नमन नितप्रति हैं।।
—दोहा—
मध्यलोक के दश तरू, के शाश्वत जिनधाम।
व्यंतर सुर के शेष तरु, गृह में जिनगृह मान।।३।।
ॐ ह्रीं पंचमेरुसंबंधिजंबूशाल्मलिधातकीशाल्मलि—पुष्करशाल्मलि—दशवृक्षतत्परिवारवृक्षषट्त्रिंशल्लक्ष—त्रिचत्वािंरशत्सहस्र—एकशतविंशतिवृक्षस्थित- जिनालयस्थसर्वजिनबिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—दोहा—
वीतराग विज्ञान घन, सर्वसार में सार।
वंदूँ श्री जिनदेव को, जिनप्रतिमा अविकार।।१।।
(चाल—हे दीन बन्धु......)
जय रत्नमयी वृक्ष ये अनादि अनंता।
जय पंचरत्न वर्ण सिद्धकूट धरंता।।
जय जय जिनेन्द्र देव के, जो भवन कहे हैं।
जय जय जिनेन्द्र मूर्तियां, जो पाप दहे हैं।।१।।
जिनमंदिरों में घंटिका औ किन्किणी बजे।
वीणा मृदंग बांसुरी, संगीत हैं सजे।।
मंगल कलश औ धूप घट अनेक धरे हैं।
जो देव देवियों के सदा चित्त हरे हैं।।२।।
रत्नों की स्वर्ण मोतियों की मालिकायें हैं।
कौशेय१ वस्त्र सदृश रत्न की ध्वजायें हैं।।
उनमें बने हैं सिंह, हस्ति हंस बैल जो।
मयूर, चक्र, गरुड़, चन्द्र, सूर्य कमल जो।।३।।
इन दश प्रकार चिन्ह से चिन्हित हैं ध्वजायें।
जो भक्त गणों को सदा ही पास बुलायें।।
ये रत्नमयी होय के भी वायु से हिलें।
अद्भुत असंख्य रत्न हैं इस रूप में मिलेें।।४।।
प्रत्येक जैनगेह में रचना अनंत है।
प्रत्येक में ही इक सौ आठ जैनबिंब हैं।।
प्रत्येक में तोरण दुवार रत्न के बने।
जिनदेव मानतंभ वहां मान को हनें।।५।।
ये जैनभवन हैं सदा सन्मार्ग के दाता।
निज आश्रितों को सत्य में हैं मुक्ति प्रदाता।।
इन नाम के जपे से नशे भूत की बाधा।
व्यंतर पिशाच प्रेत क्रूर, गृहों की बाधा।।६।।
इनके करे जो दर्श वे भवसिंधु तरे हैं।
जो भक्ति से पूजन करें वे सौख्य भरे हैं।।
इस लोक में धन धान्य पुत्र पौत्र को पाते।
चक्रेश की सी संपदा पा मौज उड़ाते।।७।।
जिनधर्म में अतिगाढ़ प्रेम धारते सदा।
परलोक में इन्द्रादि विभव पावते मुदा।।
पश्चात् यहां तीर्थ की पदवी को धरा के।
तीर्थंकरों का धर्मचक्र जग में चलाके।।८।।
आर्हन्त्य विभव पाय के भगवंत बनेंगे।
वे मुक्ति वल्लभा के भी तो कंत बनेंगे।।
इस विध से नाथ आपकी कीर्ती को मैं सुनी।
अतएव शरण आपकी ली सुन के तुम धुनी।।९।।
बस एक आश आज मेरी पूरिये प्रभो।
मोहादि कर्म वैरियों को चूरिये प्रभो।।
बस मैं स्वयं निज आत्मा को शुद्ध करूंगा।
सम्यक्त्व शुद्ध ‘ज्ञानमती’ सिद्धि वरूँगा।।१०।।
—दोहा—
प्रभु तुम महिमा अगम है, तुम गुणरत्न अनंत।
इक गुण लव भी पाय मैं, तरुँ भवाब्धि अनंत।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—सोरठा—
अकृत्रिम जिनधाम, अतुलविभव को कह सके।
प्रणमूँ आठों याम, गुणमणिमाला कंठ धर।।१।।
—चाल-हे दीनबंधु..........—
जय जयतु जंबूवृक्ष के शाश्वत जिनालया।
जय जयतु शाल्मलीतरु के जैन आलया।।
जय जयतु धातकी तरू के जैनधाम दो।
जय जयतु शाल्मली तरू के जैनधाम दो।।२।।
जय जयतु जय पुष्कर तरू के दो जिनालया।
जय जयतु शाल्मली तरू के दो जिनालया।।
जय जयतु दशों वृक्ष के जिनधाम अनादी।
जय जयतु जैनमूर्तियां मणिरत्नमयादी।।३।।
इन दस के परिवार तरू के जैनगृह नमूं।
इनके सभी व्यंतरगृहों के जैनगृह नमूँ।।
जय जय अनादि अरु अनंत जैन मूर्तियां।
मैं नित्य नमूं भक्ति से ये रत्न मूर्तियां।।४।।
हे चित्स्वरूप जैनिंबब! मैं तुम्हें नमूँ।
हे आदि अंत शून्य! प्रकृतिरूप में नमूँ।।
तुम हो अनादि परमब्रह्म ज्योतिस्वरूपी।
चैतन्य चिदानंद सहज रूप अरूपी।।५।।
हो शुद्ध बुद्ध परम विश्वनाथ महेशा।
आनन्द कंद श्रीजिनंद नमत सुरेशा।।
खेचर सुरों की टोलियाँ आ भक्ति भाव से।
हे नाथ! तुम्हें पूजती है नित्य चाव से।।६।।
हो ऋद्धि सहित साधुवृंद या हो खगेशा।
विद्याधरों के कुल में जन्म लेके नरेशा।।
या भूमिगोचरी मनुष्य गगन में चलें।
विद्या के बल से ढाई द्वीप में अधर चलें।।७।।
जो भव्य वृक्ष मंदिरों की वन्दना करें।
संचित अनंत पाप कर्म खण्डना करें।।
साधु भी समयसाररूप निज को करें हैं।
संसार विषम वार्धि से भी शीघ्र तिरे हैं।८।।
जिनिंबब एक सौ सुआठ सर्व भवन में।
वे रत्न मणिमयी अनादि जैन भवन में।।
रत्नों के सिंहविष्टरों पे राजते सदा।
पद्मासनों से पूर्ण अचल भासते सदा।।९।।
है वीतराग सौम्य छवि चित्त मोहनी।
नासाग्र दृष्टि ध्यान मग्न शांत सोहनी।।
मणि मोतियों के छत्र फिरे ढुर रहे चंवर।
नित भक्ति करे आन वहां अप्सरा अमर।।१०।।
संसार विपिन के लिये पावक प्रचंड हो।
हे नाथ! भव समुद्र हेतु तुम तुरंड हो।।
चैतन्य सुधाकर के लिये चंद्रमा तुम्हीं।
मोहाधंकार नाश हेतु अर्यमा तुम्ही।।११।।
मैंने भी मनुज योनि में ही जन्म लिया है।
सम्यक्त्व रत्न पाय जनम धन्य किया है।।
हे नाथ! निधी गिर न जाय भवसमुद्र में।
करके कृपा रक्षा करो चिंता न हो हमें।।१२।।
त्रैलोक्य नाथ! आज तेरी शरण में आया।
करुणा करो हे देव! मैं मोहारि सताया।।
अब दीन बंधु! शीघ्र ही सहाय कीजिये।
बस आपके ही पास में बुलाय लीजिये।।१३।।
—दोहा—
जय जय प्रभु त्रैलोक्यपति, आश्रित के प्रतिपाल।
‘ज्ञानमती’ निज संपदा, देकर करो खुशाल।।१४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालयतत्परिवारजिनालय-जिनबिंबेभ्य: जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
—शंभु छंद—
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू जन्में यहां पर।
यह हस्तिनागपुर तीर्थ वंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।
यहां तेरहद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं महिमाशाली।
मेरा यहाँ संघ सहित निवास, स्वाध्याय ध्यान से है हितप्रद।।१।।
अकृत्रिम वृक्ष जिनालय का, यह विधान अतिशायी सुखप्रद।
सुखशांति समद्धी देकर के, अतिशय शक्ती देगा संतत।।
वीराब्द पचीस सौ उनतालिस, शुभ ज्येष्ठ कृष्ण दशमी तिथि में।
यह विधान रचना पूर्ण किया, होवे मंगलकर सब जग में।।२।।
श्रीमत् चारित्र चक्रवर्ती, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।३।।
शाश्वत तरु के जिनभवनों की, जिनप्रतिमा की पूजा सुंदर।
निश्चित ऐसा दिन आवेगा, साक्षात् दर्श होगा सुखकर।।
जब तक जग में शाश्वत मंदिर, प्रतिमाओं की भक्ती होवे।
तब तक मुझ गणिनी ‘ज्ञानमती’-कृत पूजा सुकृतफल देवे।।४।।
—दोहा—
शाश्वत जिनगृह वंदना, शाश्वत सुख दातार।
भविजन नित वंदन करो, पावो सौख्य अपार।।५।।
।।इति अकृत्रिमवृक्षजिनालयविधानं संपूर्णम्।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।
रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माताजी
ॐ जय सिद्धायतनं, स्वामी जय सिद्धायतनं।
अकृत्रिम वृक्षों पर राजें, जिनमंदिर अनुपम।।
ॐ जय.।
तीनलोक के मध्यलोक में, द्वीप असंख्य कहे। स्वामी द्वीप.....
उनमें ढाईद्वीपों में ही, मानव रहते हैं।।
ॐ जय.।।१।।
उनकी अकृत्रिम रचना में, हैं दशवृक्ष बने। स्वामी हैं.......
जम्बू-शाल्मलि आदिक, में जिनमंदिर हैं।।
ॐ जय.।।२।।
यह अकृत्रिम वृक्ष जिनालय, का विधान सुन्दर।।स्वामी है विधान....
गणिनी ज्ञानमती माताजी, की यह कृति मनहर।।
ॐ जय.।।३।।
शाश्वत तरु के जिनभवनों की, जिनप्रतिमा प्यारी। स्वामी जिनप्रतिमा........
करो ‘‘चन्दनामति’’ प्रभु आरति, भविजन सुखकारी।।
ॐ जय.।।४।।