|| श्री रत्नत्रय पूजा विधान ||
|| श्री रत्नत्रय पूजा विधान ||
|| श्री रत्नत्रय पूजा विधान - Shri Ratnatraya Puja Vidhan ||
मंगलाचरण
-शार्दूलविक्रीडित छंद-
सिद्धेर्धाममहारिमोहहननं, कीर्ते: परं मन्दिरम्।
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं, संशीति विध्वंसनम्।।
सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं, सिद्धिप्रमालक्षणम्।
सन्तश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधिय:, श्रीवर्धमानं जिनम्।।१।।
शान्ति: कुंथ्वरनाथशक्रमहिता:, सर्वै: गुणैरन्विता:।
ते सर्वे तीर्थेशचक्रिमदनै:, पदवीत्रिभि: संयुता:।।
तीर्थंकरत्रयजन्ममृत्युरहिता:, सिद्धालये संस्थिता:।
ते सर्वे कुर्वन्तु शान्तिमनिशं, तेभ्यो जिनेभ्यो नम:।।२।।
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं, रत्नत्रयं पावनम्।
मुक्तिश्रीनगराधिनाथजिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रद:।।
धर्म: सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्र्यालयं।
प्रोक्तं त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु ते मंगलम्।।३।।
।।इति पुष्पांजलि:।।
रत्नत्रय वंदना
--शंभु छंद--
जिनने रत्नत्रय धारण कर, परमेष्ठी का पद प्राप्त किया।
अर्हंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय, साधु का पद स्वीकार किया।।
इन पाँचों परमेष्ठी के, श्रीचरणों में मेरा वंदन है।
रत्नत्रय की प्राप्ती हेतू, रत्नत्रय को भी वंदन है।।१।।
रत्नत्रय के धारक श्री चारितचक्रवर्ती गुरु को वंदन।
बीसवीं सदी के प्रथम सूर्य, आचार्य शांतिसागर को नमन।।
श्री वीरसागराचार्य प्रथम, जो पट्टाचार्य उन्हें वंदन।
उनकी शिष्या हैं ज्ञानमती जी, गणिनीप्रमुख उन्हें वन्दन।।२।।
रत्नत्रय की इन प्रतिमाओं के, वरदहस्त को मैं चाहूँ।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञानचरण की, स्वयं पूर्णता पा जाऊँ।।
रत्नत्रय व्रत का यह विधान, रचने की मन भावना जगी।
फिर सकल-विकल रत्नत्रय आराधक की आराधना सजी।।३।।
यूँ तो यथाशक्ति रत्नत्रय, पालन सब कर सकते हैं।
लेकिन रत्नत्रय का व्रत बिरले, मानव ही कर सकते हैं।।
चैत्र भाद्रपद माघ मास में, रत्नत्रयव्रत आता है।
शुक्ल द्वादशी से एकम् तक, इसे मनाया जाता है।।४।।
तीन दिवस उपवास तथा, दो दिन एकाशन जो करते।
वे उत्कृष्ट१ रूप में रत्नत्रय व्रत का पालन करते।।
पाँच दिवस एकाशन करना, मध्यम२ व्रत कहलाता है।
तीन दिवस एकाशन करना, व्रत जघन्य३ बन जाता है।।५।।
रत्नत्रय व्रत के उद्यापन में, इस विधान को करते हैं।
रत्नत्रय की वृद्धी हेतू, स्वाध्याय ध्यान को करते हैं।।
रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना, मुनियों में साकार कही।
रत्नत्रय की मध्यम जघन्य, साधना श्रावकों में भी कही।।६।।
रत्नत्रय का मण्डल विधान, हम सबको रत्नत्रय देवे।
मिथ्यात्व सहित संसार भ्रमण का, अन्त हमारा कर देवे।।
यह अभिलाषा ‘‘चन्दनामती’’, लेकर विधान प्रारंभ करो।
रत्नत्रय की जय-जयकारों से, शुभ कर्मों का बंध करो।।७।।
-दोहा-
रत्नत्रय के मार्ग पर, चलते रहो सदैव।
पा जाओगे एक दिन, शाश्वत सुख हे जीव!।।८।।
मण्डल पर पुष्पांजली, करो करावो भव्य।
पूजन को प्रारंभ कर, पाओ निजसुख नव्य।।९।।
।।अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
तीनों मास की शुक्ला द्वादशी को एकाशन एवं तेरस-चौदश-पूर्णिमा तीन दिन का उपवास करके आगे की एकम् को एकाशन करना उत्कृष्ट रत्नत्रय व्रत कहलाता है।
तीनों मास में शुक्ला द्वादशी से अगले मास की एकम् को मिलाकर पाँच दिन एकाशन करना अथवा मध्य की चतुर्दशी को १ उपवास करके चार दिन एकाशन करना मध्यम रत्नत्रयव्रत होता है।
तीनों मास की शुक्ला तेरस से पूर्णिमा तक तीन दिन एकाशन करना अथवा चतुर्दशी को उपवास और दो दिन एकाशन करना जघन्य रत्नत्रय व्रत कहलाता है।
रत्नत्रय पूजा ( समुच्चय पूजा )
-स्थापना (अडिल्ल छंद)-
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित की साधना।
कहलाती है रत्नत्रय आराधना।।
इस रत्नत्रय को ही शिवपथ जानना।
करूँ उसी रत्नत्रय की स्थापना।।१।।
दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
रत्नत्रय पूजन करूँ, जिनमंदिर में आन।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-
तर्ज - एरी छोरी बांगड़ वाली.....
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
वंâचन झारी में जल ले, प्रभुपद त्रयधारा करना है।
जन्म जरा मृत्यू का नाशक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।१।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
काश्मीरी केशर घिस करके, जिनपद चर्चन करना है।
पंचपरावृत भवदुखनाशक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
धवल अखण्डित तंदुल लेकर, प्रभु ढिग पुंज चढ़ाना है।
अक्षयपद शिवसौख्य प्रदायक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।३।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
वकुल केवड़ा आदि पुष्प ले, जिनवर चरण चढ़ाना है।
कामबाण विध्वंस में हेतू, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।४।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
मिष्ट सरस पकवान्न थाल ले, जिनवर चरण चढ़ाना है।
क्षुधारोग विध्वंसनकारक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।५।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
घृत दीपक की थाली लेकर, प्रभु की आरति करना है।
मोहमहातम का विध्वंसक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।६।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
शुद्ध धूप ले अग्निघटों में, प्रभु के पास जलाना है।
सभी अष्टकर्मों का नाशक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।७।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
सेव आम अंगूर आदि फल, प्रभु के निकट चढ़ाना है।
दुखनाशक मुक्तीफलदायक, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।८।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।टेक.।।
अनर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’, जिनवर के चरण चढ़ाना है।
पद अनर्घ्य की प्राप्ती हेतू, रत्नत्रय कहलाता है।।सम्यक्...।।९।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक निर्मल नीर ले, कर लूँ शांतीधार।
आत्मशक्ति जाग्रत करूँ, लूँ रत्नत्रय धार।।१०।।
|| शांतये शांतिधारा ||
पुष्पांजलि के हेतु मैं, लिया पुष्प भर थाल।
आतम गुण विकसित करूँ, लूँ रत्नत्रय धार।।११।।
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
जाप्य मंत्र
(१) ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नम:।
(२) ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय नम:।
जयमाला
हाथों में लेकर पूजन का थाल
छाई हैं मन में खुशियाँ अपार,
हम सब आए हैं पूजन के लिए-२।।टेक.।।
आठ अंगों से युत, सम्यग्दर्शन शुद्ध होता।
जिसको पाकर मानव, आतम के करम मल धोता।।
मुक्तिमहल की सीढ़ी है यह,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।१।।
अष्टविध ज्ञान सम्यक्, जिसे पाकर के ज्ञानी है बनना।
ज्ञान के दर्पण में, दोष को देखकर उनसे डरना।।
ज्ञान मिले-विज्ञान मिले,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।२।।
है त्रयोदश विध का, चारित्र जिसे पालते मुनि।
पाप कुछ त्याग करके, बनें श्रावक भी तो अणुव्रती हैं।।
पाप तजें-हम पुण्य करें,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।३।।
रत्नत्रय का यह उपवन, गुण पुष्पों से होता है सुरभित।
रत्नत्रय का यह अर्चन, भव्यों को ही करता है सुरभित।।
वन्दन है, अभिनंदन है,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।४।।
रत्नत्रय पूजन की, जयमाला का पूर्णार्घ्य लाए।
‘‘चन्दनामति’’ प्रभु के, चरणों में चढ़ाने आए।।
ज्ञान मिले, चारित्र मिले,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।५।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
|| शांतये शांतिधारा || || दिव्य पुष्पांजलि: ||
-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्नप्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘‘चन्दनामती’’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।
-स्थापना-
तर्ज - जपूँ मैं जिनवर जिनवर....
ज्ञान की ज्योति जलाऊँ, ज्ञान में ही रम जाऊँ,
ज्ञान का ही फल आतमनिधि को मैं पाऊँ,
हे प्रभु पाऊँ, ज्ञान को पाऊँ।।ज्ञान की ज्योति.।।टेक.।।
सम्यग्ज्ञान की पूजा रचाऊँ, आह्वानन कर उसको ध्याऊँ।
संस्थापन कर मन में बिठाऊँ तुमको, प्रभुवर तुमको, जिनवर तुमको।।
ज्ञान की ज्योति.।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (स्रग्विणी छंद)-
नीर गंगा नदी का कलश भर लिया।
तीन धारा प्रभू के चरण कर दिया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कुम कुमादि सुचन्दन घिसाकर लिया।
भवतपन शांतिहित प्रभु चरण चर्चिया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शालि के पुंज धोकर लिया थाल में।
प्रभु के सम्मुख समर्पूं झुका भाल मैं।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण चांदी जुही केतकी पुष्प ले।
मैं समर्पण करूँ प्रभु के सन्मुख भले।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्ट पकवान्न का थाल भर कर लिया।
ज्ञान की अर्चना में समर्पित किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्न दीपक जला आरती मैं करूँ।
मोह का नाश कर सौख्य शाश्वत भरूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नि में धूप सुरभित दहन मैं करूँ।
कर्म की धूप का अब हवन मैं करूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नारियल निंबु केला फलों को लिया।
ज्ञान अर्चन में प्रभु पद समर्पण किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर चंदन सुअक्षत सहित अर्घ्य ले।
‘‘चन्दनामति’’ प्रभू पाद अर्पूं उसे।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विश्व की शांति हित शांतिधारा किया।
ज्ञान की अर्चना में त्रिधारा किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।१०।।
|| शांतये शांतिधारा ||
आत्म गुण की प्राप्ति हेतु पुष्प अंजली करूँ।
ज्ञानगुण की प्राप्ति हेतु पुष्पवृष्टी करूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।११।।
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
-दोहा-
अठ विध सम्यग्ज्ञान की, पूजा करूँ महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करूँ हरूँ अज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरि द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
स्वर-व्यंजन का भी जहाँ, यथायोग्य परिमाण।
उस श्रुत का अर्चन करे, शीघ्र कर्म की हान।।१।।
ॐ ह्रीं व्यञ्जनोर्जितश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्थ समग्र प्रगट करे, जो श्रुत सम्यक् सार।
हीनाधिक भी नहिं रहे, पूजूँ श्रुत भण्डार।।२।।
ॐ ह्रीं अर्थसमग्रश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द अर्थ से पूर्ण जो, श्रुत निर्दोष महान।
उस श्रुत की पूजन करूँ, हो अज्ञान की हान।।३।।
ॐ ह्रीं शब्दार्थोभयपूर्णश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्रन्थाध्ययन के काल का, करते जो व्याख्यान।
उन ग्रंथों की अर्चना, देती सौख्य महान।।४।।
ॐ ह्रीं कालाध्ययनवर्णनश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नियमव्रतादि कथन सहित, है उपधान समृद्ध।
विनय देवता आदि युत, ग्रंथ नमूँ गुणसिद्ध।।५।।
ॐ ह्रीं उपधानसमृद्धांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विनय आदि से जानिए, विनयोन्मुद्रित अंग।
उस श्रुत पूजन से मिले, आत्मशुद्धि का रंग।।६।।
ॐ ह्रीं विनयोन्मुद्रितांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निन्हव जो गुरु आदि का, करें लहें अज्ञान।
इनका जो वर्णन करें, वे हैं शास्त्र महान।।७।।
ॐ ह्रीं गुर्वाद्यनपन्हसमेधितांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुओं के बहुमान से, होती बुद्धि समृद्ध।
उन वर्णन युत शास्त्र की, पूजा दे सुख सिद्धि।।८।।
ॐ ह्रीं बहुमानसमृद्धांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शेर छंद-
हैं तीन सौ छत्तीस भेद मतिज्ञान के।
जो हैं अवग्रहादिरूप भेद नाम से।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।९।।
ॐ ह्रीं सम्यक्मतिज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतज्ञान है दो भेदरूप शास्त्र में कहा।
उनमें से बारह भेद अंगप्रविष्ट के कहा।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१०।।
ॐ ह्रीं सम्यक्श्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय द्वादशांग में प्रथम आचार अंग है।
श्रावक व मुनि के चरित का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।११।।
ॐ ह्रीं आचारांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय द्वादशांग में द्वितीय सूत्रकृत कहा।
छत्तिस हजार पद से सहित अंगश्रुत रहा।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१२।।
ॐ ह्रीं सूत्रकृतांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय द्वादशांग का तृतीय स्थानांग है।
भव्यों के लिए तत्त्व का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१३।।
ॐ ह्रीं स्थानांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय द्वादशांग में चतुर्थ समवायांग है।
द्रव्यादि के सादृश्य का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१४।।
ॐ ह्रीं समवायांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम से पंचम जो अंग है।
है साठ सहस्र प्रश्नों का संकलन इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१५।।
ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिअंगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय ज्ञातृकथा अंग छठा अंग कहा है।
गंभीर अर्थयुक्त कथारूप कहा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१६।।
ॐ ह्रीं ज्ञातृधर्मकथांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय सातवाँ उपासकाध्ययनांग कहा है।
इसमें कही सब श्रावकों की पूर्ण क्रिया है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१७।।
ॐ ह्रीं उपासकाध्ययनांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय अन्तकृद्दशांग आठवाँ जो अंग है।
प्रत्येक प्रभु के अन्तकृत् केवलि का कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१८।।
ॐ ह्रीं अन्तकृद्दशांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवमां अनुत्तरोपपादिक दशांग है।
इसमें अनुत्तरों में जन्मे का ही कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपादिकदशांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जय दशम प्रश्नव्याकरण नामक जो अंग है।
प्रश्नानुसार उसमें कथाओं का कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२०।।
ॐ ह्रीं प्रश्नव्याकरणांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकादशम विपाकसूत्र अंग कहा है।
कर्मों के पाक का कथन इसमें ही कहा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२१।।
ॐ ह्रीं विपाकसूत्रांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है दृष्टिवाद अंग पाँच भेदयुत कहा।
परिकर्म नाम उनमें से है प्रथम कहा।।
उनमें से ही परिकर्म पंचभेदयुत जजूँ।
अज्ञान हटाने के लिए अर्घ्य समर्पूं।।२२।|
ॐ ह्रीं दृष्टिवादांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जिनदेव के द्वारा कही है चन्द्रप्रज्ञप्ती।
जिसमें है चन्द्रमा के परिवार की कथनी।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२३।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनदेव के द्वारा कही है सूर्यप्रज्ञप्ती।
जिसमें है सूर्य देव के परिवार की कथनी।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२४।।
ॐ ह्रीं सूर्यप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनदेव ने कही है जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ती।
कुलपर्वतादि की कही है जिसमें स्थिती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण द्वीप-सागरों की भी है पण्णत्ती।
उनके जिनालयों की उसमें जानो स्थिती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२६।।
ॐ ह्रीं द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का श्रुतज्ञान भी माना।
जीवरु अजीव का कथन उसमें है बखाना।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२७।।
ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूत्र नाम का द्वितीय भेद बताया।
सिद्धान्तसूत्र का कथन है उसी में आया।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२८।।
ॐ ह्रीं सूत्रनाम श्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नाम का माना।
प्रथमानुयोग उसका एक भेद बखाना।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२९।।
ॐ ह्रीं प्रथमानुयोगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
श्रुतज्ञान चतुर्दशपूर्वरूप, श्रुत की विशेषता कहता है।
उसमें उत्पादपूर्व पहला, द्रव्योत्पादन को कहता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३०।।
ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है दुतिय आग्रायणीय पूर्व, जहाँ मोक्ष प्रकाशित होता है।
सब शास्त्रों में भी प्रमुखरूप से, मार्ग प्रदर्शित होता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३१।।
ॐ ह्रीं अग्रायणीयपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर्यानुवाद पूरब आत्मा की, शक्ती का वर्णन करता।
यह पूर्वरूप श्रुत आगम की, बातों का नित्य कथन करता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३२।।
ॐ ह्रीं वीर्यानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फिर अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, वह चौथा पूर्व कहाता है।
स्याद्वाद का अनुपम लक्षण जो, जिनधर्म का सार बताता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३३।।
ॐ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचम है ज्ञानप्रवादपूर्व, ज्ञानादि देशना करता है।
है सम्यग्ज्ञान प्रमाणरूप, इसकी सिद्धी वह करता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३४।।
ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्यादि भेद का वाचक सत्य-प्रवादपूर्व कहलाता है।
इनके शास्त्रों को पढ़ने से, सच-झूठ पता चल जाता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३५।।
ॐ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मप्रवाद नामक सप्तम, पूरब आत्मा का कथन करे।
भारती सरस्वति माता की, वाणी भव्यात्मा श्रवण करे।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३६।।
ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टम है कर्मप्रवादपूर्व, जो कर्मों का वर्णन करता।
कर्मों के नाना भेद तथा, उन सबके अर्थ कथन करता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३७।।
ॐ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है प्रत्याख्यान पूर्व नवमाँ, सावद्यत्याग का कथन करे।
बस उसी ज्ञान के अर्जन हेतू, मुनिगण इसका पठन करें।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३८।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्या-औषधि आदिक का वर्णन, करता है विद्यानुवाद।
मंत्रादिक को पढ़ इसमें प्राय:, पद से च्युत हो जाते साधु।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३९।।
ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारहवाँ है कल्याणवाद, जो तीर्थंकर कल्याणक का।
वर्णन करके बतलाता है, कैसा था तीर्थकाल उनका।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४०।।
ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राणानुवाद है पूर्व बारहवाँ, प्राणचिकित्सा बतलाता।
इस वर्णन के ही साथ पूर्व, यह धर्म का फल भी बतलाता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४१।।
ॐ ह्रीं प्राणानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेरहवाँ क्रियाविशाल पूर्व, श्रुतज्ञान विशाल क्रिया कहता।
वह नृत्य-वाद्य-संगीत-गीतमय, पावन काव्य कथा कहता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४२।।
ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननायक तीर्थंकर प्रभु ने, चौदहवाँ पूर्व अपूर्व कहा।
है सार्थक नाम त्रिलोकबिन्दु-सारं त्रैलोक्यस्वरूप कहा।।
जल गंधादिक से अघ्र्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४३।।
ॐ ह्रीं लोकबिन्दुसारपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हैं चूलिका के पाँच भेद श्रुतसमुद्र में।
पहली है जलगता जलस्तंभन स्वरूप में।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४४।।
ॐ ह्रीं जलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्थलगता द्वितीय चूलिका कही जाती।
मेरू कुलाद्रि पर्वतों का कथन बताती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४५।।
ॐ ह्रीं स्थलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायागता तृतीय चूलिका का नाम है।
मायावियों के रूप का इसमें व्याख्यान है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४६।।
ॐ ह्रीं मायागताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाशगता चूलिका नामानुसार है।
नभ में गमन की गती आदि कहते शास्त्र हैं।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४७।।
ॐ ह्रीं आकाशगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित्रादि कर्म को सिखाती रूपगता है।
इस चूलिका में मनुज-पशु की रूपकथा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४८।।
ॐ ह्रीं रूपगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
उस सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद, मति-श्रुत आदिक माने जाते।
स्वर-व्यंजनयुत आदिक अठ, शुद्धी युत ये हैं पाले जाते।।
हम उसी ज्ञान की पूजन का, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
हो ज्ञानज्योति की प्राप्ति ‘चन्दना-मती’ भाव ये लाए हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
||शांतये शांतिधारा ||
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नम:।
जयमाला
तर्ज-मिलो न तुम तो हम..........
सम्यग्ज्ञान रतन है दूजा, इसकी करने पूजा,
प्रभू हम आ गये हैं-२।।टेक.।।
ज्ञान के समान जग में, कोई हितकारी वस्तु है नहीं। हो......
ज्ञान ही प्रमाण सच में, आत्म हितकारी वस्तु है सही।। हो......
ज्ञानामृत के, स्वाद को चखने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं-।।१।।
शब्दशुद्धि अर्थशुद्धि और उभयशुद्धि पालन करते जो। हो......
कालशुद्धिपूर्वक श्रुत के, अध्यन से भवसागर को तरते वो।। हो......
शुद्धज्ञान का, अर्जन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।२।।
उपधानशुद्धी करके, ज्ञान की समृद्धी हम पा सकते हैं। हो....
गुरु की विनय के द्वारा, आत्मा में शुद्धी हम ला सकते हैं।। हो.....
शुद्धातम का, चिन्तन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।३।।
आचारशुद्धी द्वारा, शुद्ध आचरण का पाठ पढ़ना है। हो......
बहुमान शुद्धी द्वारा, शास्त्र का सदा सम्मान करना है।। हो......
जिनवाणी का, अर्चन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।४।।
अष्टभेदयुत शुद्धी के, साथ जैन आगम जो भी पढ़ते हैं। हो.....
‘‘चन्दनामती’’ वे सम्यग्ज्ञान के फल मुक्तिश्री को वरते हैं।। हो......
पूर्ण अर्घ्य को, अर्पण करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
|| शांतये शांतिधारा ||
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रयधारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘‘चन्दनामती’’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
रत्नत्रय विधान - सम्यक्चारित्र पूजा
-स्थापना (शंभु छंद)-
आत्मा की सब सावद्ययोग से, जब विरक्ति हो जाती है।
वह त्याग की श्रेणी ही सम्यक्चारित्ररूप हो जाती है।।
वह पंच महाव्रत पंचसमिति, त्रयगुप्ति सहित कहलाता है।
तेरह प्रकार का यह चारित, शिवपद को प्राप्त कराता है।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
पूजन हेतू मैं यहाँ, आया हूँ भगवान।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-
तर्ज-देख तेरे संसार की हालत...........
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में जल की महिमा है।
जन्म मृत्यु उससे हरना है।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
चन्दन से चर्चन करना है।
भव आताप शांत करना है।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में अक्षत को चढ़ाया।
मिलेगी अक्षय पद की छाया।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पुष्प माल पूजन में चढ़ाऊँ।
कामबाण विध्वंस कराऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में नैवेद्य चढ़ाऊँ।
क्षुधा रोग हर निज सुख पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
घृत दीपक का थाल सजाऊँ।
मोहतिमिर को दूर भगाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।६।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
अगर तगर की धूप जलाऊँ।
पूजन कर निज कर्म जलाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।७।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
आम अनार बदाम चढ़ाऊँ।
पूजन करके शिवफल पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।८।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
अर्घ्य ‘चन्दनामती’ चढ़ाऊँ।
पद अनर्घ्य पूजन से पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।९।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
जल ले शांतीधार करूँ मैं।
विश्वशांति का भाव करूँ मैं।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।१०।।
|| शांतये शांतिधारा ||
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में पुष्पांजलि कर लूँ।
गुणपुष्पों को मन में भर लूँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।११।।
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
अथ प्रत्येक अर्घ्य
-दोहा-
सम्यक्चारित का वलय, है तृतीय विख्यात।
पुष्पांजलि करके यहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।।१।।
इति मण्डलस्योपरि तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-सखी छंद-
नहिं मन से हिंसा करना, दुर्गति जाने से डरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|
नहिं हिंसक वचन उचरना, रसना इन्द्रिय वश करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं वचनfिवशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से भी न हिंसा करना, सर्वदा अहिंसक बनना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं झूठ का चिन्तन करना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हितमियप्रिय वचन उचरना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं तन से प्रेरित करना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से न चोरी करना, अस्तेय महाव्रत धरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चोरी के वचन न कहना, अस्तेय का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं काय से चोरी करना, अस्तेय महाव्रत धरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से न कुशील करूँ मैं, ब्रह्मचारी शीघ्र बनूँ मैं।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं वचन कुशील के बोलूँ, सुवचन से शिवपथ खोलूँ।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से हो शील का पालन, आत्मा का रहे नित साधन।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह का भाव भी मन में, नहिं किंचित हो चिन्तन में।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह है पाप का कारण, वचनों से भी न हो साधन।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से विशुद्ध रहना है, परिग्रह को नहिं रखना है।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
ईर्यासमिती पाल कर, निज मन करूँ पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१६।।
ॐ ह्रीं मनसाकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु वचन से पालते, ईर्यासमिति पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१७।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से ईर्यासमिति को, पालें साधु पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१८।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से कोमल वचन जो, बोलें भाषा शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।१९।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भाषा समिती वचन से, पालें हों वच शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।२०।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायशुद्धियुत वचन को, बोलें भाषा शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।२१।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोषरहित एषणसमिति, मुनि पालें मन शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२२।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनों से भी जो रखें, मुनि भिक्षा की शुद्धि।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२३।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काया से आहार की, रखें सदा जो शुद्धि।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२४।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लेन-देन जो वस्तु का, दयाभाव मनयुक्त।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२५।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयायुक्त वच से करें, रखें उठावें वस्तु।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२६।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयाभावयुत काय से, रखें उठावें वस्तु।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२७।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयायुक्त मन से करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।२८।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनशुद्धि युत भी करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।२९।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायशुद्धि युत जो करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।३०।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
जो धीर-वीर मुनि मनोगुप्ति का, पालन करते जीवन में।
वे स्थिरचित्त आत्मध्यानी, मनमर्वâट करते हैं वश में।।
मन को अनुशासित कर मैं भी, यह मनोगुप्ति पाना चाहूँ।
मनगुप्ती को अब अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३१।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतमनोगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन महातपस्वी मुनियों के भी, वचनगुप्ति प्रगटित होती।
उनके बिन वचन उचारे ही, वचनों की रिद्धि प्रगट होती।।
रसना इन्द्रिय अनुशासित कर, मैं यह गुप्ती पाना चाहूँ।
वचगुप्ती को अब अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३२।।
ॐ ह्रीं वाक्विशुद्ध्याकृतवचनगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायोत्सर्ग में स्थित हो जो, कायगुप्ति पालन करते।
आचार्य वीरसागर सम शल्य-चिकित्सा में सुस्थिर रहते।।
निज तन अनुशासित कर मैं भी, यह कायगुप्ति पाना चाहूँ।
इस कायगुप्ति को अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३३।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतकायगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, त्रयगुप्तिरूप चारित्र कहा।
इनका पालन करने वाले, मुनिराज जगत में पूज्य महा।।
निज में इनको प्रगटित करने, हेतू पूर्णार्घ्य चढ़ाता हूँ।
मन-वचन-काय को स्थिर कर, चारित्र को शीश झुकाता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
|| शांतये शांतिधारा ||
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नम:।
जयमाला
तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ.......
सम्यक्चारित की पूजन से, होगा बेड़ा पार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।टेक.।।
सुनी है हमने देव-शास्त्र-गुरु की महिमा।
पढ़ी है ग्रंथों में इनकी गौरव गरिमा।।
नग्न दिगम्बर मुनियों में, चारित्र दिखे साकार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।१।।
पाँच महाव्रत को मन-वच-तन से पालन करते हैं।
पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर जीवनयापन करते हैं। ।
‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ का वे, सूत्र करें साकार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।२।।
देख-शोधकर चलना-खाना, आदि समितियाँ पालें।
मुनिसम ही आर्यिका मात, उपचार महाव्रत पालें।।
इन गुरुओं का वन्दन करके, हो भव से उद्धार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।३।।
तीन गुप्तियों का पालन बस, महामुनी करते हैं।
बड़े-बड़े उपसर्गों को वे, सहन तभी करते हैं।।
व्रत-समिती-गुप्ती में ही, चारित्र का है भण्डार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।४।।
यथाशक्ति चारित्र को धारण, हम सबको है करना।
उससे ही ‘चन्दनामती’, भवसिन्धु से पार उतरना।।
सुर पदवी ले परम्परा से, मिले मुक्ति का द्वार।
पूर्णार्घ्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।५।।
ॐ ह्रीं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रयगुप्तिरूपत्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
|| शांतये शांतिधारा ||
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘चन्दनामती’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
रत्नत्रय विधान - समुच्चय जयमाला
तर्ज-चाँद मेरे आ जा रे.........
करें रत्नत्रय का अर्चन-२,
सम्यक्रतन ये, तीनों जगत में, इसका करें व्रत हम।।करें.।।टेक.।।
सोलहकारण के समापन, में रत्नत्रयव्रत आता।
उपवास या एकाशन कर, व्रत का पालन हो जाता।।
भाद्रपद-चैत्र-माघ में हम,
शुक्ल द्वादशी, से पाँच दिन तक, व्रत का करें पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।१।।
तेरस चौदश पूनम को, उपवास किया जाता है।
दो दिन एकाशन करके, व्रत पूर्ण किया जाता है।।
जाप और पूजन करते हैं,
तेरह बरस तक, व्रत पूर्ण करके, होता है उद्यापन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।२।।
वैश्रवण नाम के नृप ने, विधिवत् इस व्रत को किया था।
अहमिन्द्र का पद पा फिर वह, नरभव से मुक्त हुआ था।।
मल्लि तीर्थंकर बन करके,
मिथिलापुरी में, जन्मे पुन:, रत्नत्रय किया पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।३।।
ये बालयती तीर्थंकर, शिवपद को प्राप्त हुए हैं।
इन महापुरुष से जग में, रत्नत्रय सार्थ हुए हैं।।
कथा इसकी पढ़कर कितने,
नर-नारियों ने, लेकर रत्नत्रय, का व्रत किया पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।४।।
शंकादि दोष अठ एवं, मद आठ मूढ़ता त्रय हैं।
छह अनायतन ये पच्चिस, सम्यक्त्व के दोष कहे हैं।।
दोष करना है निर्मूलन,
जब मोक्षपथ के, सच्चे पथिक बन, चलते रहेंगे हम,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।५।।
संशय-विपरीत व विभ्रम, त्रय दोष ज्ञान के माने।
इनसे विरहित हो सम्यक्-ज्ञानी पदार्थ को जानें।।
यही है सम्यग्ज्ञान रतन,
फिर तप-नियम के, द्वारा करें, सम्यक्चारित पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।६।।
रत्नत्रय धारण करने, से सच्चा सुख मिलता है।
‘चन्दनामती’ नरभव में, ही रत्नत्रय मिलता है।।
तभी नरभव सबसे पावन,
कहलाता है हम, देव-शास्त्र-गुरुओं का करें वन्दन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।७।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: महाजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
|| शांतये शांतिधारा ||
|| दिव्य पुष्पांजलि: ||
-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘चन्दनामती’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।१।।
-दोहा-
सम्यग्दर्शन ज्ञान अरु, चारित ये त्रयरत्न।
इनका आराधन करूँ, मिले मुक्ति का पंथ।।१।।
काल अनादी से कहा, रत्नत्रय शिवमार्ग।
जिसने भी अपना लिया, वह पहुँचा शिवद्वार।।२।।
इसीलिए यह रत्नत्रय, पूजन का है विधान।
रत्नत्रय की पूर्णता, हेतु किया निर्माण।।३।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, अड़तिस का है वर्ष।
भादों शुक्ला पूर्णिमा, पूर्ण किया मन हर्ष।।४।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके शिष्य बने प्रथम, वीरसागराचार्य।।५।।
चारितचूड़ामणि हुए, वे गुरुवर्य महान।
उनकी शिष्या ज्ञानमति, गणिनीप्रमुख प्रधान।।६।।
वीरप्रभू के तीर्थ में, ये हैं पहली मात।
ग्रन्थसृजन में रच दिया, जिनने नव इतिहास।।७।।
इन्हीं ज्ञानमति मात की, शिष्या मैं अज्ञान।
मिला आर्यिका चन्दना-मती गुरू से नाम।।८।।
बचपन से पाया इन्हीं, माँ से धार्मिक ज्ञान।
बहन तथा गुरुमात का, मिला इन्हीं से प्यार।।९।।
इनके आशिर्वाद से, साहित्यिक कुछ कार्य।
मैंने जीवन में किये, पाया ज्ञान का सार।।१०।।
इसी शृंखला में बना, यह रत्नत्रय पाठ।
व्रत उद्यापन के लिए, है विधान यह सार्थ।।११।।
रत्नत्रय की साधना, करते जो भी भव्य।
वे इस भव्यविधान को, कर पावें पद नव्य।।१२।।
गुरु माँ के करकमल में, अर्पूं दो आशीष।
पूर्ण रत्नत्रय के लिए, झुका रहे मम शीश।।१३।।
श्री रत्नत्रय विधान की मंगल आरती
-तर्ज-माई रे माई...........
त्नत्रय मण्डल विधान की, आरति मंगलकारी।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।
बोलो रत्नत्रय की जय, दर्शन-ज्ञान-चरित की जय।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र ये तीन रतन हैं।
इनके धारक परमेष्ठी को, मेरा शत वन्दन है।।
इनके वंदन से हम सब भी.........
इनके वंदन से हम सब भी, बनें मुक्तिपथराही।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।बोलो रत्नत्रय की जय, ....।।१।।
काल अनादी से रत्नत्रय, को शिवपथ माना है।
इनकी पूर्ण प्राप्ति होने पर, शाश्वत सुख पाना है।।
उस शाश्वत सुख की इच्छा ही.......
उस शाश्वत सुख की इच्छा ही, भव दुख नाशनकारी।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।बोलो रत्नत्रय की जय, ......।।२।।
रत्नत्रय व्रत एक वर्ष में, तीन बार आता है।
माघ-भाद्रपद-चैत्र मास में, इसे किया जाता है।।
व्रत पूरा करके उद्यापन.....
व्रत पूरा करके उद्यापन, करते हैं नर-नारी।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।बोलो रत्नत्रय की जय, .......।।३।।
व्रत समाप्त होने पर रत्नत्रय विधान को करिए।
आत्मविशुद्धी हेतु हृदय में, शुभ भावों को भरिए।।
देव-शास्त्र-गुरु की भक्ती से.......
देव-शास्त्र-गुरु की भक्ती से, मिले सौख्य भी भारी।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।बोलो रत्नत्रय की जय, .......।।४।।
इस रत्नत्रय के विधान से, जग में मंगल होवे।
करने और कराने वालों, को सुख-सम्पति देवे।।
करें ‘‘सारिका’’ पंच परमगुरु.......
करें ‘‘सारिका’’ पंच परमगुरु, रक्षा सदा हमारी।
तीन रत्न की आरति करके, बनूँ रत्नत्रयधारी।।बोलो रत्नत्रय की जय, .......।।५।।
श्री रत्नत्रय मण्डल विधान की वंदना
वंदन करो रे,
श्री रत्नत्रय मण्डल विधान का, वंदन करो रे।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित ये, रत्नत्रय कहलाते हैं।
देव-शास्त्र-गुरु की भक्ती से, भविगण इनको पाते हैं।।
वंदन करो, वंदन करो, वंदन करो रे,
रत्नत्रयधारी श्रीगुरुओं का, वंदन करो रे।।१।।
एक वर्ष में तीन बार यह, रत्नत्रयव्रत आता है।
माघ-भाद्रपद-चैत्र मास में, इसे मनाया जाता है।।
वंदन करो, वंदन करो, वंदन करो रे,
महिमाशाली रत्नत्रय व्रत का, वंदन करो रे।।२।।
व्रत पूरा करके इस रत्नत्रय विधान को करना है।
चउ पूजाओं के माध्यम से, प्रभु की भक्ती करना है।।
वंदन करो, वंदन करो, वंदन करो रे,
रत्नत्रय पद की प्राप्ती हेतू, वंदन करो रे।।३।।
सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन, पूजा में बारह अघ्र्य चढ़े।
उसके बाद ज्ञान की पूजन, में अड़तालिस अघ्र्य चढ़े।।
वंदन करो, वंदन करो, वंदन करो रे,
तेंतिस अघ्र्य सहित चारित का, वंदन करो रे।।४।।
इस विधान की रचनाकत्र्री, को मेरा वंदन है।
प्रज्ञाश्रमणी मात चन्दनामति को कोटि नमन है।।
वंदन करो, वंदन करो, वंदन करो रे,
भक्तिभाव से सहित ‘‘सारिका’’, वंदन करो रे।।५।।