श्री तिजारा क्षेत्र स्थित चन्द्रप्रभ पूजा
(श्री मुंशीलालजी)
शुभ पुण्य उदय से ही प्रभुवर, दर्शन तेरा कर पाते हैं।
केवल दर्शन से ही प्रभुवर, सब पाप मेरे कट जाते हैं।।
देहरे के चन्द्रप्रभु स्वामी, आहानन करने आया हूँ।
मम हृदय कमलमें आ तिष्ठो, तेरे चरणों में आया हूँ।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रपभ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टक
भोगों में फंसकर हे प्रभुवर, जीवन को वृथा गंवाया है।
इस जन्म मरण के चक्कर से, छुटकारा ना मिलने पाया है।।
मन में कुछ भाव उठे मेरे, जल झारी में भर लाया हूँ।
मन के मिथ्यामल धोने को, चरणों में तेरे आया हूँ।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निज अन्तर शीतल करने को, चन्दन घिस कर ले आया हूँ।
मन शान्त हुआ ना इससे भी, तेरे चरणों में आया हूँ।।
क्रोधादि कषायों के कारण, संतप्त हृदय प्रभु मेरा है।
शीतलता मुझको मिल जाये, हे नाथ सहारा तेरा है।।
ओं ह्रीं श्री चन्दप्रभ जिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा में ध्यान लगाने को, अक्षत धोकर ले आया हूँ।
चरणों में पुंज चढ़ा करके, अक्षय पद पाने आया हूँ।।
निर्मल आत्मा होवे मेरी, सार्थक पूजा जब तेरी है।
निज शाश्वत अक्षय पद पाऊँ, तुमसे प्रभु विनती मेरी है।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
पर गन्ध मिटाने को प्रभुवर, यह पुष्प सुगन्धी लाया हूँ।
तेरे चरणों में अर्पित कर, तुम सा ही होने आया हूँ।।
श्री चन्द्र प्रभु यह अर्ज मेरी, भवसागर पार लगा देना।
यह काम अग्नि का रोग बढ़ा, छुटकारा नाथ दिला देना।।
ओं ह्रीं श्रीं चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
दुख देती है तृष्णा मुझको, कैसे छुटकारा पाऊँ मैं।
हे नाथ बतादो आज मुझे, चरणों में शीश झुकाऊँ मैं।।
यह क्षुधा मिटाने को प्रभुवर, नैवेद्य बना कर लाया हूँ।
हे नाथ मिटाओ क्षुधा मेरी, भव भव में फिरता आया हूँ।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह दीपक की ज्योति प्यारी, अंधियारा दूर भगाती हैं।
पर यह भी नश्वर है प्रभुवर, झंझा इसको धमकाती है।।
हे चन्द्रप्रभु दे दो ऐसा, दीपक अज्ञान मिटा डाले।
मोह अन्धकार हो नष्ट मेरा, यह ज्योति नई मन है पा ले।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
शुभ धूप दशांग बना करके, पावक में खेऊँ हे प्रभुवर।
क्षय कर्मों का प्रभु हो जावे, जग का झंझट सारा नश्वर।।
हे चन्द्रप्रभु अन्तर्यामी, कैसे छुटकारा अब पाऊँ।
हे नाथ बता दो मार्ग मुझे, चरणों में बलिहारी जाऊँ।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि. स्वाहा।
पिस्ता बादाम लवंगादिक, भर थाली प्रभु मैं लाया हूँ।
चरणों में नाथ चढ़ा करके, अमृत रस पीने लाया हूँ।।
करुणा के सागर दया करो, मुक्ति का मारग अब पाऊँ।
दे दो वरदान प्रभु ऐसा, शिवपुर को हे प्रभु जाऊँ।।
ओं ह्रीं देहरेके श्री चन्द्रप्रभाजिनेन्द्राय मोक्षफलपं्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू, दीपक घृत से भर लाया हूँ।
दश गन्ध धूप फल मिला अर्घ ले, स्वामी अघ्र्य सजाता हूँ।।
हे नाथ अनर्घ पद पाने को, तेरे चरणों में आया हूँ।
भव भव के बन्ध कटे प्रभुवर, यह अर्ज सुनाने आया हूँ।।
ओं ह्रीं देहरे के श्री चन्द्रप्रभ अनघ्र्यपद प्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
पंच कल्याणक
जब गर्भ में प्रभुजी आये थे, इन्द्रों ने नगर सजाया था।
छह मास प्रथम ही आकर के, रत्नों का मेह बरसाया था।।
तिथि चैत्र वदी पंचम प्यारी, जब गर्भ में प्रभुजी आये थे।
लक्ष्मणा माता को पहले ही, सोलह सपने दिखलाये थे।।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णपंचन्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ बेला में प्रभु जन्म हुआ, वदि पौष एकादशि थी प्यारी।
श्री महासेन नृप के घर में हुई, जय जय कार बड़ी भारी।।
पाण्डुक शिल पर अभिषेक कियो, सब देव मिले थे चतुरनिकाय।
श्री जिन चन्द्रप्रभ जग मांही, विघ्नहरण और मंगलदाय।।
ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जग के झंझट से मन ऊबा, तप की ली श्री जिन ने ठहराय।
पौष वदी ग्यारस को इन्द्र ने, तप कल्याण कियो हरषाय।।
सर्वर्तुक वन में जाय विराजे, केश लोंच जिन कियो हरषाय।
देहरे के श्री चन्द्रप्रभ को, अघ्र्य चढ़ाऊँ नित्य बनाय।।
ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तप कल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन, चार घातिया घात महान।
समवसरण रचना हरि कीनी, ता दिन पायो केवलज्ञान।।
साढ़े आठ योजन परमित था, समवसरण श्री जिन भगवान।
ऐसे श्री जिन चन्द्रप्रभु को, अर्घ चढ़ाऊँ करूं नित ध्यान।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्ण्सप्तम्यां ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीतिस्वाहा।
शुक्ला फाल्गुन सप्तमी के दिन, ललित कूट शुभ उत्तम थान।
श्री जिनचन्द्रप्रभु जगनामी पायो, आतम शिव कल्याण।।
वसुकर्म जिन चन्द्र ने जीते, पहुँचे स्वामी मोक्ष मंझार।
निर्वाण महोत्सव कियो इन्द्र ने, देव करें सब जय जयकार।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
प्रकट तिथि का अघ्र्य
श्रावण सुदी दसमी को प्रभुजी प्रकट भये देहरे में आन।
संवत तेरह दो सहस्र ऊपर, शुभ बृहस्पतिवार ता दिन जान।।
जय जयकार हुई देहरे में, प्रकट भये जब श्री भगवान।
चरणों में आ अर्घ चढ़ाऊँ, प्रभु के दर्शन सुख की खान।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय श्रावण शुक्लादशम्यां देहरास्थाने प्रकटरूपाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
।।जाप्य मंत्र।।
निम्न लघु व वृहद् मंत्रों में से किसी एक मंत्र की 9, 27 या 108 जाप धूपदान में लवंग या धूप की आहुति देते हुए करें:-
।। वृहद् मंत्र।।
1. अेां ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्यहयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, विजययक्ष, ज्वालामालिनीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय देहरा स्थित श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय नमः मम् ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
।। लघ मंत्र।।
2. ओं ह्री विजययक्ष, ज्वालामामालिनीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय देहरा स्थित श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय नमः मम् ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
हे चन्द्रप्रभु तुम जगत पिता, जगदीश्वर तुम परमात्मा हो।
तुम ही हो नाथ अनाथो के, जग को निज आनन्ददाता हो।।
इन्द्रियों को जीत लिया तुमने, जितेन्द्रनाथ कहाये हो।
तुम ही हो परम हितैषी प्रभु गुरु तुम ही नाथ कहाये हो।।
इस नगर तिजारा में स्वामी, देहरा स्थान निराला है।
दुःख दुखियों का हरने वाला, श्रीचन्द्र नाम अति प्यारा है।।
जो भाव सहित पूजा करते, मन वांछित फल पा जाते हैं।
दर्शन से रोग नशें सारे, गुण गान तेरा सब गाते हैं।।
मैं भी हूँ नाथ शरण आया, कर्मों ने मुझको रोंदा है।
ये कर्म बहुत दुख देते हैं, प्रभु एक सहारा तेरा है।।
कभी जन्म हुआ कभी मरण हुआ, हे नाथ बहुत दुख पाया है।
कभी नरक गया कभी स्वर्ग गया, भ्रमता भ्रमता ही आया है।।
तिर्यंच गति के दुःख सहे, यह जीवन बहुत अकुलाया है।
पशु गति में मार सही भारी, बोझा रख खूब भगाया है।।
अंजन से चोर अधम तारे, भव सिन्धु से पार लगाया है।
सोमा की सुनकर टेर प्रभु, तुम नाग का हार बनाया है।।
मुनि समन्तभद्र को हे स्वामी, आ चमत्कार दिखलाया है।
कर चमत्कार को नमस्कार, चरणों में शीश झुकाया है।।
इस पंचम काल में हे प्रभुवर, क्या अद्धुत महिमा दिखलाई।
दुख दुखियों का हरने वाली, देहरे में प्रतिमा प्रकटाई।।
शुभ पुण्य उदय से हे स्वामी! दर्शन तेरा करने आया हूँ।
इस मोह जाल से हे स्वामी्! छुटकारा पाने आया हूँ।।
श्री चंद्रप्रभु मेरी अर्ज सुनो, चरणों में तेरे आया हूँ।
भवसागर पार करो स्वामी, यह अर्ज सुनाने आया हूँ।।
ओं ह्रीं देहरा स्थित श्री चंद्रप्रभु जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
देहरे के श्री चन्द्र को, भाव सहित जो ध्याय।
‘मुन्शी’ पावे सम्पदा, मन वांछित फल पाय।।
इत्याशीर्वाद:- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्
विजय यक्ष का अर्घ
चन्द्रप्रभु के शासन रक्षक, विजय यक्ष आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं देहरा स्थित श्री चंद्रप्रभु जिनेन्द्रस्य विजययक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
ज्वालामालिनी यक्षी का अर्घ
चन्द्रप्रभु की शासन रक्षक, ज्वाला को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं देहरा स्थित श्री चंद्रप्रभु जिनेन्द्रस्य ज्वालामालिनी यक्षिदेवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
चन्द्रप्रभु के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ देहरा स्थित श्री चंद्रप्रभु जिनेन्द्रस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
।। इति।।