कालचक्र (बारह आरा)
कालचक्र नियमित और निरन्तर है| संसार में रहने वाले जीव कालचक्र से सदा प्रभावित रहते हैं|
संसार सतत गतिशील व परिवर्तनशील है|
इस चराचर जगत् में उत्कर्ष और अपकर्ष का चक्र सदा शाश्वत है|
इस चक्र को कालचक्र से प्रदर्शित किया जाता है|
उत्कर्ष काल को उत्सर्पिणी काल तथा अपकर्ष काल को अवसर्पिणी काल कहते हैं|
इस प्रकार कालचक्र के मुख्यत: दो भाग हो जाते हैं|
अवसर्पिणी काल – इस काल में क्रमश : शुभ पुद्गलों की हानि और अशुभ पुद्गलों की वृध्दि होती है|
उत्सर्पिणी काल – इसमें उत्तरोत्तर शुभ पुद्गलों की वृध्दि तथा अशुभ पुद्गलों का ह्रास होता जाता है|
कालचक्र के दोनों काल का एक चक्र पूरा हो जाने पर एक कालचक्र होता है|
एक कालचक्र की अवधि बीस कोड़ाकोड़ी सागर बतायी गई है|
अवसर्पिणी काल – यह छह भागों में इस प्रकार से अभिव्यक्त है –
1.सुषम – सुषम
2.सुषम
3.सुषम – दु:षम
4.दु:षम – सुषम
5.दु:षम
6.दु:षम – दु:षम
सुषम – सुषम :-
अवसर्पिणी काल के इस प्रथम आरे में मनुष्य युगलिक रूप में उत्पन्न होते हैं|
इनका शरीर 256 पसलियों से युक्त तीन कोस का और आयु तीन पल्योपम होती है|
इसमें सुख ही सुख रहता है|
मनुष्य की इच्छाएँ कल्पवृक्षों से पूरी होती हैं|
इस आरे की अवधि चार कोड़ाकोड़ी सागर की मानी गई है|
सुषम :-
प्रथम आरे के समाप्त हो जाने पर तीन कोड़ेकोड़ी सागर का दूसरा प्रारम्भ होता है|
इस आरे के मनुष्य के शरीर 128 पसलियों से युक्त दो कोस का तथा आयु दो पल्योपम होती है|
इसमें पहले आरे की अपेक्षा मनुषय कम सुखी होते हैं, शेष बातें पहले आरे के मनुष्यों की तरह ही हैं|
सुषम – दु:षम –
दूसरा आरा समाप्त हो जाने पर यह दो कोड़ाकोड़ी सागर का यह आरा प्रारम्भ होता है|
इसमें सुख अधिक और दु:ख कम होता है|
मनुष्यों का शरीर 64 पसलियों से युक्त एक कोस का होता है
और आयु एक पल्योपम की होती है|
इस आरे के बीतने में 84 लाख पूर्ण 3 वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह जाते हैं,
तब प्रथम तीर्थंकर देव का जन्म होता है| एक चक्रवर्ती भी इसी आरे में जन्म लेता है|
दु:षम – सुषम –
यह आरा 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का होता है|
इसमें मनुष्य युगलिकों के रूप में जन्म नहीं लेते हैं|
इनका शरीर पाँच सौ धनुष का होता है|
इसमें शेष 23 तीर्थंकरों, 11चक्रवर्तियों, नौ बलदेवों,
नौ वासुदेवों और नौ वासुदेवों और नौ प्रतिवासुदेवों का जन्म होता है|
दु:षम –
यह आरा 21 हजार वर्ष का है|
अन्तिम तीर्थंकर के मोक्ष गमन के बाद यह आरा आरम्भ होता है|
इसमें मनुष्यों का शरीर सोलह पसलियों से युक्त सात हाथ का होता है
और सायु 125 वर्ष की होती है|
कषायों आदि की वृध्दि तथा धर्म का ह्रास होने लगता है| वर्तमान में यही आरा गतिमान है|
दु:षम – दु:षम –
यह आरा 21 हजार वर्ष का माना गया है| इसमें दु:ख ही दु:ख है|
इसमें मनुष्यों का शरीर आठ पसलियों से युक्त एक हाथ होना बताया गया है|
लोग धर्म और पुण्य से रहित होंगे|
उत्सर्पिणी काल – अवसर्पिणी काल के बाद उत्सर्पिणी काल उदय में आता है|
इसके भी छह आरे हैं- 1. दु:षम – दु:षम, 2. दु:षम, 3. दु:षम – सुषम, 4. सुषम – दु:षम, 5. सुषम, 6. सुषम – सुषम|
इनमें पहला, दूसरा आरा 21-21 हजार वर्ष का,
तीसरा आरा 42 हजार वर्ष का,
चौथा आरा 2 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का,
पाँचवाँ आरा 3 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का तथा
छठवाँ आरा 4 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का माना गया है|
इन आरों में रहने वाले मनुष्यों का शरीर, आयु, आहारादि क्रमश : पुष्ट व नियमित तथा दु:ख व अधर्म आदि सभी क्रमश : ह्रासोन्मुख होते हैं| मनुष्य दु:ख से सुख की ओर क्रमश : बढ़ता है| वह फिर से पहली वाली स्थिति में पहुँच जाता है| समस्त पृथ्वी सर्वोत्कृष्ट समृध्दियों से सम्पन्न होती जाती है| मनुष्यों को पुन : कल्पवृक्ष मिल जाते हैं|
*हुण्डा अवसर्पिणी काल में होने वाली विशेष घटनाऐं*
(1) तृतीय काल में प्रथम तीर्थंकर का जन्म होना तथा उसी काल से मुक्त होना।
(2) प्रथम तीर्थंकर के यहाँ दो कन्याओं का जन्म होना।
(3) प्रथम तीर्थंकर का अधिक समय राज करते निकाल देना।
(4) प्रथम तीर्थंकर को वैराग्य उपजाने के लिए इन्द्र द्वारा व्यवस्था होना।
(5) प्रथम तीर्थंकर को मुनि अवस्था में लम्बे समय तक आहार न मिलना।*
(6) प्रथम तीर्थंकर के रहते हुए 363 मतों का उद्भव हो जाना और सभी तीर्थंकरों के काल में 363 मत बने रहना।
(7) प्रथम तीर्थंकर द्वारा हुई वर्ण व्यवस्था में प्रथम चक्रवर्ती द्वारा सुधार किया जाना। (नया ब्राह्मण वर्ण बनाया)
(8) प्रथम तीर्थंकर के साथ दिक्षित हुए 4 हजार मुनियों का भ्रष्ट हो जाना।*
(9) *प्रथम तीर्थंकरादि का भिन्न भिन्न स्थानों में जन्म होना ।
(10) तीर्थंकरों की अवगाहना एवं आयु समकालीन अन्य जनों से कम होना ।
(11) तीर्थंकर आदिनाथ, तीर्थंकर शांतिनाथ जी, तीर्थंकर कुन्थुनाथ जी, तीर्थंकर अरहनाथ जी के वंश में से नरक चले जाना।
(12) प्रथम चक्रवर्ती का दिग्विजय में प्रथम काम-देव द्वारा हार जाना।
(13) ब्रम्हदत् और सुभौम चक्रवर्ती का नरक चले जाना।
(14) समवसरण में विराजमान अंतिम तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का लम्बे समय तक नहीं खिरना।
(15) शलाका पुरुषों की संख्या में कमी आना।
(16) एक ही स्थान से मोक्ष न जाकर कुछ तीर्थंकरों का भिन्न भिन्न स्थान से मोक्ष जाना।
(17) प्रथम चक्रवर्ती द्वारा अपने ही वंश के सदस्य छोटे भाई क्षायिक सम्यग्दृष्टि तद्भव मोक्षगामी प्रथम कामदेव पर चक्र चलाना।
(18) चक्रवर्ती द्वारा महामंत्र का अविनय किया जाना।
(19) कुछ तीर्थंकरों के उपर मुनि अवस्था में उपसर्ग होना (श्री सुपार्श्वनाथ जी, श्री पारसनाथ जी , श्री महावीर स्वामी जी )
(20) प्रथम तीर्थंकर को सबसे पहले मुक्ति का लाभ ना होना।(अनन्तकीर्ति जी और बाहुबली जी का प्रथम मोक्ष चला जाना।)
(21) तृतीय काल में भोगभूमि होते हुए भी कल्पवृक्षों का लोप हो जाना।
(22) महापुरुष बलभद्र रामचन्द्र जी को पत्नी की दीक्षा के बाद वैराग्य होना।
(23) चतुर्थ काल में 23 तीर्थंकरों का ही होना।
(24) पांच तीर्थंकर का बाल ब्रम्हचारी (अविवाहित) होना