श्री पार्श्वनाथ विधान
( बिजौलिया क्षेत्र का)
विन्ध्यावल्ली पार्श्व के, गुण गाऊँ अविराम ।
पंच कल्याणक पूज्य हो, पाया शिव का धाम ॥
(ज्ञानोदय)
उपसर्गों को जीता जिनने, दस भव तक भी समता से ।
उन पारस के चरणों के प्रति, अब तक मेरी ममता है |
उनकी पूजा विधान करने, लिखूँ पीठिका दस भव की ।
हे प्रभु! तेरे गुण गाने से, मिटे आपदा भव भव की ॥ 1 ॥
कमठ देव ने इक दिन श्री मरुभूति भ्रात पर एक शिला ।
पटकी थी सो उससे मरकर, हाथी भव में जनम मिला ॥
मुनिवर श्री अरविन्द पूज्य के, उपदेशों से बोधित हो ।
अणुव्रत धारण किए भाव से, धर्मभाव अनुरोधित हो ॥ 2 ॥
कमठ बना अहि उसने गज को, काट लिया सो मरण हुआ ।
कमठ गया था नरक, व्रती ने, बारम सुर में जनम लिया ॥
अग्निवेग नृप बनकर मुनि हो, आत्मध्यान में लीन हुए ।
नारक आकर भील बना तो, मुनि के तन में तीर दिए ॥ 3 ॥
वैर भाव था इक में, इक में, सम भावों का स्रोत बहा ।
तभी एक मर बना नारकी, दूजे को सुर सौध कहा ॥
पहला आकर शेर बना तो, दूजे चक्री भूप बने ।
साधु बना जब नृपवर तो, हा ! सिंहराज ने प्राण हने ॥ 4 ॥
पापी फिर से नरक गया अरु, मुनिवर शुभ से स्वर्ग गए ।
स्वर्ग सुखों को भोग पधारे, आनन्द धरणी पाल हुए ॥
षट्खण्डों को छोड़ भूप ने, मुनि के व्रत को ग्रहण किया ।
और सुनो उस पापी ने आ, अजगर बनकर निगल लिया ॥ 5 ॥
फिर भी ऋषि के उर में किंचित्, कोप भाव नहिं जाग सका।
भेदज्ञान से तन-चेतन के, तन का सारा राग गया ॥
तभी उन्होंने समाधिपूर्वक, मरण किया सो सुर पाया ।
और कमठ ने मुनि हत्या से, श्वभ्र सिन्धु में दुख पाया ॥ 6 ॥ ?
वही देव आ सोलह सपने देकर वामा माता को ।
बनारसी के अश्वसेन नृप, पुत्र बने शिवदाता औ ॥
गर्भ-जन्म तप कल्याणक को, पाकर शिव की शिक्षा दी।
इन्द्र सुरासुर से पूजित हो, बालपने में दीक्षा ली ॥ 7 ॥
और पधारे इसी क्षेत्र पर, निज आतम को ध्याते थे ।
कर्म नाश की ठान धन्य हो, अपने में रम जाते थे ॥
तथा मूर्ख वह कमठ जीव आ, पारस प्रभु का बन नाना ।
तापस बनकर मिथ्यातम से, मरकर ज्योतिष पद पाया ॥ 8 ॥
तभी सुनो उस ज्योतिस्सुर ने आकर पानी बरषाया ।
सात दिवस तक घोर उपद्रव, करके भी हा! हरषाया ॥
फिर भी प्रभुवर पलभर को भी, च्युत न हुए सो हार गया ।
तथा कर्म भी नष्ट हुए सो, कमठ पार्श्व के पाँव पड़ा ॥ १ ॥
नाग इन्द्र ने पार्श्वनाथ पर, अपने फण फैलाए थे ।
पद्मावति देवी ने आकर, प्रभुवर के गुण गाए थे |
तभी कमठ कृत उपद्रवों का, अन्त हुआ था पार हुआ ।
दस भव का वह वैरपना भी, आज यहाँ निस्सार हुआ ॥ 10 ॥
समवसरण भी लगा जहाँ पर, दिव्य देशना पायी थी ।
जिसको पाकर मिथ्यामति की, प्रज्ञा भी विलसायी थी |
उसी क्षेत्र श्री विन्ध्यावलि की, पूजन करता भाव भरी ।
बिना अर्चना मानव के क्या, रहा लोक में सार कहीं ॥ 11 ॥
नमस्कार कर करूँ वन्दना, बार-बार मैं नमन करूँ ।
फल में स्वामी मात्र आपके पथ पर ही नित गमन करूँ ॥
आप चरण को छोड़ कभी भी, और कहीं नहिं जाऊँ मैं |
श्वास रहे इस तन में तब तक, आप शरण को पाऊँ मैं ॥ 12 ॥
विधान प्रारम्भ
स्थापना
(ज्ञानोदय)
ज्ञान महोत्सव जहाँ हुआ था, उसी क्षेत्र के पारस का ।
स्थापन करता सन्निधि करता, आह्वानन भव तारक का ॥
आओ आओ आओ स्वामी, हृदय कमल पर बिठलाऊँ ।
अवसर पाया भाग्य खुला जो, पूजन करके हरषाऊँ ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर- अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ- तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणम्
(अष्टक)
, ले जल के कलशा, चेतन हरषा, सुख ही बरषा पूजन से ।
सब पाप धुलेंगे, सौख्य मिलेंगे, भाग्य खिलेंगे अर्चन से ॥
हे पारस देवा, पाते मेवा, करते सेवा जो पद में ।
वे भव से तरते शिव को वरते, सुख से भरते पल भर में ॥ -
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं .... ।
मैं लेकर चन्दन काटो बन्धन हे शिव नन्दन अरज करूँ ।
मैं पाप मिटाने सुख को पाने, महिमा गाने शरण गहूँ ॥
हे पारस देवा......
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसार-ताप विनाशनाय चंदनं ।
जो अक्षत लावे पद में आवे चित्त लगावे पूज करे ।
पा शाश्वतपन को निजचेतन को, अक्षयधन को सौख्य वरे ||
हे पारस देवा....... ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान्..... |
ले पुष्प सुगंधित त्रिभुवन वंदित हे सुख मण्डित चरण धरूँ ।
मम काम मिटा दो, पाप हटा दो, ज्ञान बढ़ा दो नमन करूँ ||
हे पारस देवा........ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं .... ।
ले मीठे नैवज, आप चरण भज, बनने को अज' चरण भजूँ ।
हे क्षुघा विनाशक, पुण्य प्रकाशक, त्रिभुवन शासक शरण चहूँ।
हे पारस देवा........ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं ....
मैं दीप चढ़ाऊँ पाप हटाऊँ ज्ञान सुपाऊँ चरण धरूँ ।
हे शिव पथ नेता, मार्ग प्रणेता, मोह विजेता शरण गहूँ ॥
हे पारस देवा....... ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं .... ।
ले धूप दशांगी हे सुखसंगी, पाप विभंगी जो पूजे ।
वो कर्म जलावे, निज को पावे, भव से जावे तुम्हें भजे
हे पारस देवा....... ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं .... ।
जो लौंग सुपारी भरकर थाली हे सुखकारी पूज करे।
वे शिव में जावे लौट न आवे, निज को पावे, ताप हरे ॥
हे पारस देवा....... ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलं..... |
ले चन्दन पानी हे सुखखानी, अमृत वाणी पूज्य रही ।
हे ज्ञान प्रभाकर, शीश झुकाकर, अर्घ बनाकर पूज करी ॥
हे पारस देवा....... ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं ....
(दोहा)
अष्टक से मैं पार्श्व को, पूजूँ आठों याम |
अंग नमाकर आठ ही, पाऊँ अष्टम धाम ।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ।
जन्मकृत दस अतिशय के अर्घ
(ज्ञानोदय)
" कर्मोदय से सप्तधातु के, तन में आता स्वेद सदा ।
प्रभु के परमौदारिक तन में आ सकता है स्वेद कहाँ ।
मिथ्यातममय शनि भागेगा, पार्श्वनाथ की चर्चा से ।
पार्श्व भक्त के शनिग्रह की तो, मिट जायेगी चर्चा रे ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं निःस्वेदत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ..... ।
नव द्वारों से मल बहता है, सब संसारी प्राणी के ।
नहीं बचा है मल प्रभुवर के, तभी पूजते प्राणी ये॥
मंगल ग्रह भी मंगल करने, आ जावेगा आपद में ।
भक्त बनेगा पार्श्वनाथ का, जो भी आपद सम्पद में ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं निर्मलत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ।
बलशाली अरु महामल्ल हो, हार क्षणों में खा जाता ।
उत्तम संहननधारी प्रभु की पूजा में जो रम जाता ॥
मोह राहु भी मिट जावे तब, राहु देव की बात कहाँ ।
पूजे आकर पार्श्व चरण तो, राह दिखावे आय यहाँ ॥ 3 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं वज्रवृषभ नाराचसंहनन जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
तीन लोक में आप सरीखा, रूप कहीं क्या मिल पावे |
जो भी देखे जब भी देखे, मात्र देखता रह जावे ॥
केतु ग्रहों की बात कहें क्या क्रोध केतु भी नश जावे ।
पुण्य केतु लहराये घर जो, भक्त पार्श्व का बन जावे ॥ 4 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं समचतुस्रसंस्थान जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नम: अर्घ्यं ।
आप देह में क्षीर सिन्धु के पानी सम ही रक्त रहा।
धवल भाव है तभी हमारा, चित्त चरण आसक्त रहा ।।
गुरु ग्रह भी तो भाग खड़ा हो, या आ चरणों नमन करे ।
भक्ति करे जो पार्श्वनाथ की, दुख भी उसके गमन करे ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं क्षीर गौर रुधिरत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
एक-एक औ अंग पार्श्व का आकर्षक है सुन्दर है ।
फिर भी काम न उपजे कारण, विरागता का मन्दर है ।
सूर्य ग्रहों सम पूजा जावे, पार्श्वनाथ की पूजन से ।
क्या कर पावे ग्रह बेचारे, डर जावे गुण कूजन से ॥ 6 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौरूप्य जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
देह सुरभि से त्रिभुवन के सब, सुरभिवान जो द्रव्य रहे ।
गन्ध रहित हो पार्श्वनाथ की, शरण गहे तो श्रव्य कहे ||
शुक्र, शुक्र कर देगा उसको, विन्ध्यावलि में आकर जो ।
भज लेगा प्रभु पार्श्वनाथ को, पा जावे गुण सागर को ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौगन्ध्य जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
स्वस्तिक कमल कलश आदिक जो, एक सहस शुभ लक्षण है।
इन लक्षण से शोभित प्रभु की पूजा अघ की भक्षक है ।
भूत प्रेत क्या दुख दे पाये, वे भी आकर भक्त बने ।
झूम-झूम कर पार्श्वनाथ की, भक्ति करे अनुरक्त रहे ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौलक्षण्य जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
अतुल अमित बल जैसा तुममें, नहीं किसी में मिल पावे ।
पार्श्व चरण के पूजक को भी, वैसा ही बल मिल जावे ॥
नहीं हटेगा पीछे हार न, खायेगा तुम भक्त कभी ।
आगे होगा सबसे आगे, लौकिक सुख भी मिले सभी ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अप्रमितवीर्य जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं....।
षट् रस मिश्रित छप्पन व्यञ्जन, सब फीके पड़ जायेंगे ।
अमृतमय तव वचन सुने जो, रोग-शोक नश जायेंगे ।
चन्द्र चाँदनी सम ही जग को, शान्ति प्रदाता बन जावे ।
पार्श्व आपके चरण भजे तो, शिव के सुख भी वह पावे ॥ 10 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं प्रियहितवादित्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नमः अर्घ्यं ....
(आला)
सौ योजन तक सात ईतियाँ, मिट जाती है सभी भीतियाँ |
अनावृष्टि नहिं बहुत वृष्टि हो, पार्श्व भक्त के सौख्य सृष्टि हो ॥ 11
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं गव्यूतिशय चतुष्टय सुभिक्षत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ..I
नभतल में हो गमन आपका, देख नाश हो शीघ्र पाप का ।
पार्श्व सभी के कष्ट मिटाते, अतिशय सबको देव बताते ॥ 12 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं गगनगमनत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अ नमः अर्घ्यं ।
वर्षों वर्षों भूख न लगती, नहीं देह की आभा घटती ।
भोजन बिन भी तृप्त आप है, भक्त रहे हम सभी आपके ॥ 13 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं भुक्त्यभाव जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ।
होगा अब वह रोगी ।
प्राणी की हिंसा नहिं होगी, कभी न होगा अब वह रोगी ।
जो पारस का स्पर्श करेगा, कंचन सम वह चमक उठेगा ॥ 14 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अप्राणिवधत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नमः अर्घ्यं .... ।
कौन सता पायेगा तुमको, सता दिया है कर्मों को जो ।
पार्श्वनाथ उपसर्ग विजेता, उपसर्गों से रहित सुनेता ॥ 15 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं उपसर्गाभाव जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं
आनन तेरा सबको दिखता, दर्श मात्र से संशय भगता ।
इक मुख है पर चार दिखेंगे, पारस अतिशय सभी भजेंगे ॥ 16 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं चतुर्मुखत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
लोक-अलौकिक सारी विद्या, आय विराजी बने अवद्या ।
मिटे अविद्या सुमरण कर ले, पार्श्व चरण में सिर को धर ले ॥ 17 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सर्वविद्येश्वरत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अ नमः अर्घ्यं
छाया कैसे पड़े आपकी, नहीं बची है गंध पाप की ।
पूजा कर ले तू पारस की, छाया ना ही मिथ्यातम की ॥ 18 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अच्छायत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
नेत्रों की टिमकार नहीं है, सभी जानते बात सही है।
पार्श्वनाथ के चरण पड़ेगा, इच्छाओं का दमन करेगा ॥ 19 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अपक्ष्मस्पंदत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नमः अर्घ्यं ।
नहीं बढ़ेंगे केश कभी भी, देव मुकुट भी झुके तभी जी ।
अतिशय दसवाँ घाति नाश का, कहा गया है पार्श्वनाथ का ॥ 20 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं समाननखकेशत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ।
( लय : कहाँ गए चक्री जिन... )
दिव्य देशना सुनकर स्वामी, पशु भी सुलझे हैं ।
प्रभु चरणों की पूजा कर ले, तो क्यों उलझेंगे ॥
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥21॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सर्वार्धमागधी भाषा देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
सब जीवों में मैत्री उपजी, तब तो पूजे हैं।
तीन लोक के प्राणीगण आ, चरणों रीझे हैं ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 22 ॥
- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सर्वजन - मैत्री - भाव देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
आम जामफल आदिक सब ही साथ फलित होंगे।
आप पधारे जहाँ-वहाँ पर, पाप दलित होंगे ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 23 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सर्वर्तुफलादि-शोभित - तरु परिणाम देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं.... ।
दर्पण सम हो जाती धरती, रत्नों सी लागे ।
समवसरण जब आता तेरा, विपदा सब भागे ॥
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 24 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयी देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नम: अर्घ्यं .... ।
योग्य चलेगी पवन जहाँ पर, आप पधारेंगे ।
पाप हटेंगे जिसके उर में, आप विराजेंगे ॥
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 25 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं विहरण- मनुगत - वायुत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
काँटे कंकर धूल आदि भी, नाहीं बचते हैं।
आप गमन से भक्त जनों के पातक मिटते हैं ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 27 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं वायुकुमारोपशमित धूलि-कंटकादि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ... ।
रिमझिम-रिमझिम गंधोदक को, सुर बरसाते हैं ।
आप दरश से दुखियों के भी, मन हरषाते हैं ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 28 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मेघकुमारकृत गन्धोदकवृष्टि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
पाद रखेंगे जहाँ कमल की, रचना करते हैं ।
पंकज सम ही खिले रहे जो पूजन करते हैं ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी अर्चित होगा रे ॥29॥ ?
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पादन्यासेकृत पद्मानि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
फल लद जाते वृक्षों पर तब, नम्रनीत होते ।
पूजा करने वाले तेरी, सौख्य बीज बोते ॥
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 30 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं फलभारनम्रशालि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... |
शरदकाल सम निर्मल नभ हो, समवसरण आवे ।
आप चरण की पूजा कर ले, आपद भग जावे ॥
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 31 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं शरन्मेघवन्निर्मल गगनत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नम: अर्घ्यं .... ।
आओ आओ कहकर मानो, दुन्दुभि बाजत है।
महा महोत्सव प्रतिदिन उसके घट में राजत है।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
" रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 32 ॥ -
-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं एतैतैतिचतुर्निकायामर परस्पराह्वान देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नम: अर्घ्यं .... ।
सभी दिशाएँ स्वच्छ सुपावन, मन को भाती हैं ।
आप दरश से जन-जन के दिल, खुशियाँ छाती हैं ।
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥33॥ *
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं शरन् मेघवन्निर्मल दिग्विभागत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं.... |
झग-झग करता धर्म चक्र जो, आगे चलता है ।
आप चरण की आराधन से, किस्मत खिलता है |
पार्श्वनाथ का अर्चक जग में, चर्चित होगा रे ।
रत्नत्रय को पाकर वह भी, अर्चित होगा रे ॥ 34 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं धर्मचक्रचतुष्टय देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
( अतिपुण्य उदय मम आयो लय में पढ़ें) न
जिस वृक्ष तले जा बैठे, प्रभु निज आतम में पैठे।
वह तरु अशोक हो जाता, फल फूलों से भर जाता ॥
फल फूल से भर जाय तरु जब, पार्श्व की हो निकटता ।
सब शोक मिटता जीव का, सुख शान्ति की हो प्रकटता ॥
हे नील मणिमय पत्र न्यारे, सघन छाया शोभती ।
जो दर्शकों के चित्त को क्षण, मात्र में ही मोहती ॥
जो अर्घ उत्तम थाल भरकर, आप पद को पूजता ।
वो कर्म कालुष मेट करके, जन्म से नहिं जूझता ॥ 35 ॥
ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अशोक वृक्ष प्रातिहार्य मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अहँ नमः अर्घ्यं .... ।
सुर विविध पुष्प बरषाते, तब सबके मन हरषाते ।
हो डण्ठल सबके नीचे, सब आ जाते हैं रीझे ॥
सब आय रीझे आप पद में, भूल जाते भोग को ।
बस पार्श्व उनके हृदय बैठे, फिर न पावे शोक को ॥
सुन बरसते ये उग रहे ज्यों, फूल जग से कह रहे ।
जो भव्य आया आप शरणा, बन्ध उसके कट गए ॥
मैं काम तजकर सर्व जग के, ईश पद में आ गया ।
मानों दरश से नाथ मैं षट्खण्ड वैभव पा गया ॥ 36 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य धारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... 1
ये चामर झुक झुक कहते, प्रभु पार्श्व पाप को हरते । -
सो चरण झुका दे माथा, बन जाय धरम का ध्याता ॥
तू धर्म ध्याता बन सकेगा, नम गया यदि पाद में ।
तू कीर्ति पाकर शीघ्र पहुँचे, मोक्ष पुर के पास में ॥
जैसे सुनो ये चँवर चौंसठ, झुक रहे फिर उठ रहे ।
वैसे सुपूजा जैन को वे, ऊर्ध्वगामी बन गए ।
जो अर्घ लेकर छम-छमा छम नाचता है पूजता ।
वो भोग इच्छा त्याग करके, मुक्ति में ही रीझता ॥ 37 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं चतुःषष्ठी चामर प्रातिहार्य मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः
अर्घ्यं ।
तव भामण्डल सुखकारी, है महिमा जग में न्यारी ।
यह प्रतिहार्य जगनामी, ये पार्श्व रहे सुखदानी ॥
ये पार्श्व सबको सौख्य देकर, सब दुखों को नाशते ।
जो पूजता है आप पद उसके सभी अघ भागते ॥ ।
है देह की यह श्रेष्ठ आभा, सात भव इसमें दिखे ।
जब भव्य आकर अर्चना कर, आपके चरणों झुके ॥
यह आप जैसे तीर्थकर ही पा सकेंगे लोक में ।
हे ईश! तेरी पूज कर मैं, बच सकूं भव भोग से ॥ 38 ॥ ?
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं भामण्डल प्रातिहार्य धारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
जब केवलज्ञान उपजता, त्रयलोक सौख्य से भरता ।
सुर ढम ढम ढोल बजावे, हम हर्ष हर्ष गुण गावे ॥
हम हरष - हरष गुण गाय स्वामी, तनन तन- तन ताल दे ।
झालर बजाकर गीत गाकर, चरण झुकाते भाल ये ॥
साढ़े सुबारह कोटि बाजे, एक स्वर में बज रहे ।
कह रहे हैं मोक्षपथ के, पार्श्व नेता यह रहे ॥
सो भव्य तू भी शीघ्र आकर, मार्ग इनसे पूछ ले ।
तू चाहता यदि अचल सुख तो, पाद इनके पूज ले ॥ 39 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं दुन्दुभि प्रातिहार्य मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
त्रय धवल छत्र तव राजे, तुम तीन लोक सिरताजे ।
ये करे सूचना स्वामी, प्रभु पार्श्व रहे गतमानी ॥
तुम मान माया लोभ से भी, गत हुए सो शक्र भी ।
आ पूजते गणनाथ मुनिवर, अर्चते शत इन्द्र भी ॥
जो छत्र की है धवलता बतला सुधवलिम भाव को ।
कह रही है पार्श्व पहुँचे, शुद्ध आतम पास औ ॥
सो भव्य तू भी शीघ्र ही भव, छोड़ कलुषित भाव को ।
तू पूज्य पद को पूज कर ही, पा सके शिवधाम को ॥ 40 ॥
ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं छत्रत्रय प्रातिहार्य मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... । ।
।
प्रभु दिव्य देशना प्यारी, जब खिरी पूर्ण सुखकारी ।
तब गणधर गुरु ने झेली, पा बनी सुजनता चेली ॥
बनकर सुजनता आप चेली, समवसरण में आ गई ।
सुन आप वाणी भव्य जन के, चित्त को वा ! भा गयी ॥
सुर मनुज प्रभु गण होय गद्गद्, चरण में अर्पित हुए।
वे व्रत सुसंयम धार करके, शील से सज्जित हुए
| हे दिव्यध्वनि के नाथ पारस, दरश कर मैं धन्य हूँ ।
शुभ अर्घ से पद पूज करके, आज मैं कृतकृत्य हूँ ॥ 41 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं दिव्यध्वनि प्रातिहार्य धारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
यह सिंहासन है ऊँचा, जो करता सबको नीचा ।
रच दिया धनद ने प्यारा, यह प्रातिहार्य सुखकारा ॥
सुखकार है यह स्वर्ण निर्मित, रत्न से झगझग करे ।
श्री पार्श्वस्वामी चार अंगुल, अधर राजित मद हरे ॥
निज पीठ धारा सिंह ने सो, नाम सिंहासन बना ।
हे पार्श्व ! अनुपम आपको लख, चित्त मेरा तर बना ॥
ये कोष्ठ बारह चार दिशि में, सोहते मन मोहते ।
जो भव्य आठों याम पूजें, भव भ्रमण को खोवते ॥ 42 ॥ .
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सिंहासन प्रातिहार्य धारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं ... ।
( नरेन्द्र छन्द )
कृष्ण पक्ष की दूजी तिथि वैशाख मास की आयी ।
पारस प्रभु जी गर्भ पधारे, अद्भुत खुशियाँ छायी ॥ 43 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं गर्भ कल्याणक मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... |
पौष कृष्ण की ग्यारस के दिन, वामानन्दन जन्मे ।
अश्वसेन नृप बाँट बधाई, मन-ही-मन में हरषे ॥ 44 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं जन्म कल्याणक मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
जन्म दिवस में जातिस्मरण से विरत भाव मन आया । "
कल्याणक को देख मुझे तो, मात्र पार्श्व पथ भाया ॥ 45 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं तपः कल्याणक मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं
चैत चौथ वह काली थी पर, दिव्य दीप जब पाया |
समवसरण में दर्श किए तो, अन्धकार विनशाया ॥ 46 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं ज्ञान कल्याणक मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
सावन शुक्ला सातम के दिन, शेष कर्म भी नाशे ।
सम्मेदाचल अमर क्षेत्र से, सिद्धालय सुख चाखे ॥ 47 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मोक्ष कल्याणक मण्डित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
अन्त रहित सब द्रव्य गुणों को, पर्यायों को जानो ।
अमित ज्ञान है अमित काल तक, शाश्वत अक्षत मानो ॥ 48 ॥।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अनन्तज्ञान गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
अनाकार उपयोग नित्य ही, आलोकित है तुममें ।
अनन्त सुदर्शन नाम इसी का, हो जावे अब हममें ॥ 49 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अनन्तदर्शन गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
पंचेन्द्रिय की नहीं अपेक्षा, नहीं सौख्य की इच्छा ।
अवलम्बन ना बाह्य वस्तु का, फिर भी सुख है अच्छा ॥ 50 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अनन्तसुख गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
सबको जानो प्रतिपल नूतन, पर्यायें हैं सबकी ।
नहीं थको नहिं शक्ति क्षीण हो, यही वीर्य है जिन जी ॥ 51 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अनन्तवीर्य गुणधारक श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं
(दोहा)
क्षुधा दोष का नाम भी, मिटा आपके नाथ |
क्षुधा मिटाने मैं प्रभु, चरण नमाऊँ माथ ॥
नाच-नाच कर पार्श्व को, जो पूजेगा आज । ।
लौकिक सम्पद प्राप्त हो, मिले मोक्ष का राज ॥ 52 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं क्षुधादोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नमः अर्घ्यं .... ।
प्यास लगेगी क्यों तुम्हें, आतम रस से तृप्त ।
हुए तभी तो आपकी, अर्चा करती तृप्त ॥
ठुमक ठुमक कर ताल दे, जो पूजेगा पार्श्व । ।
आपद पास न आ सके, जब तक होवे श्वांस ॥ 53 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पिपासादोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं ... ।
आधि-व्याधि से नित्य ही, पीड़ित रहता लोक ।
औषधि खा-खा थक गए, पर न मिटा है शोक ॥
जन्म-जरा के रोग से, पूर्ण बचे हैं आप।
पारस प्रभु की पूज से, मिट जावे संताप ॥ 54॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रोगदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं ... ।
जरा दूति है मृत्यु की, जर-जर होती देह ।
तीर्थंकर हैं आप सो, जीर्ण नहीं हो देह ॥
भक्ति-भाव से जो जजे, पार्श्वनाथ के पाद ।
स्वर्गिक सुख भरपूर हो, मिले मुक्ति का साथ ॥ 55 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं जरादोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... |
चारों गति में जन्म ले, मरा अनन्तों बार
उससे बचने आपकी, पूजा ही है सार ॥
पार्श्वनाथ ना जन्म ले, शिव ललना के पास ।
शुक्लध्यान से कर्म का किया आपने नाश ॥ 56॥ ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं जन्मदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नम: अर्घ्यं
मर-मर स्वामी देह को, तज फिर पायी देह ।
मरण मारने को प्रभु, तजा देह से नेह ॥ ।
अतिशय आठों द्रव्य ले, जो पूजे बन दास ।। पार्श्वनाथ की शरण ले, पूरी हो अरदास ॥ 57 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मरणदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
भय भी हो भयभीत रे, भाग गया है देव ।
कैसे लौटे पाश्र्व तो रहे देव के देव ॥
डर-डर कर के पाप से, पुनः कमाया पाप ।
पार्श्वनाथ की अर्चना कर देती अघ साफ ॥ 58 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं भयदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
तीन लोक को जानते, तो विस्मय क्यों होय ।
मोह कर्म नहिं शेष जो, इच्छा भी ना होय ॥
पंचेन्द्रिय से हे प्रभु, नहीं जानते आप ज्ञान रहा प्रत्यक्ष है, पार्श्वनाथ निरमाप ॥ 59 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं विस्मयदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं ... ।
रागी को ही राग हो, आप रहे गतराग। ।
नहीं बचा रति दोष सो, बढ़ा हमारा राग ॥
पार्श्वनाथ तव भक्ति से, रति ना बचती शेष |
परम्परा से भव्य के, भव न बचे अवशेष ॥ 60 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रतिदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ....
इष्ट वस्तु को देखकर, लालच उपजे उग्र ।
उनको पाने पाप में, हो जाता है अग्र | पार्श्वनाथ की अर्चना, मेटे भव का राग ।
वैर-भाव के साथ में, मिटे राग की आग ॥ 61 ॥ ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं रागदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
दस भव के उस शत्रु से, नहीं किया था वैर ।
तभी कमठ आ चरण में, झुका छोड़कर वैर ॥
पार्श्वनाथ के भक्त को नहीं लगेगी ठेस ।
मारे-काटे प्राण ले, तो न उपजता द्वेष ॥ 62 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं द्वेष दोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं
तेरा मेरा सब मिटा, मिटा मोह का भाव ।
- इसीलिए तो पार्श्व के, चरण रहा मम चाव ॥
राग-रोष के साथ में, बना मोह भी दास ।
मोह विनाशक देखकर, भक्त बना मैं खास ॥ 63 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मोहदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
पाँचों निद्रा का प्रभो ! किया आपने नाश ।
तभी रहूँ मैं पूजता, जब तक दिल में श्वांस ॥
चार घातिया घात कर, पाया केवलज्ञान ।
क्षण भर भी जो पूज ले, आ जावे निज भान ॥ 64 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं निद्रादोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं ....! ।
चिन्ता से ही लोक में, दुखियारा यह जीव ।
चिन्ता नाशी आपने, तभी मिटी भव पीर ॥
पार्श्वनाथ के पाद में, शत-शत करे प्रणाम ।
यशस्कीर्ति हो लोक में, मिट जायेगा काम ॥ 65 ॥
। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं चिन्तादोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
सप्त धातु से रहित है, देह आपकी नाथ ।
कैसे आवे स्वेद कण, घातिकर्म ना साथ ॥
पारस प्रभु का नाम ही, औषधि है अतिश्रेष्ठ ।
रोग सभी क्षण में मिटे, जो खा लेवे जेष्ठ ॥ 66 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं पसेवदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं ... ।
यथाख्यात संयम रहा, सो ना उपजे स्वेद ।
परम सौम्यता देखकर हो जाते निरवेद ॥
पारस प्रभु सा लोक में, नहीं रहा है देव ।
चिन्तन से ही दुख मिटे, क्षण भर कर ले सेव ॥ 67 ॥
ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं खेददोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
वियोग ना हो इष्ट का, क्यों होवे फिर शोक ।
प्रेम-द्वेष सब मिट गया, तभी बने गतशोक ॥
पार्श्वनाथ की पूज से, मिथ्यातम नश जाय ।
समकित सूरज उदित हो, दुर्गतियाँ मिट जाय ॥ 68 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं शोकदोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नम: अर्घ्यं .... ।
खोटा- अच्छा जो रहा, सभी अपेक्षित होय ।
मिटी अपेक्षा आपमें, काहे को मद होय ॥
पारस तेरी पूज से, पाप बन्ध रुक जाय ।
पूर्व पाप भी ना बचे, पुण्य भाव बढ़ जाय ॥ 69॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मददोषरहित श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः अर्घ्यं .... ।
चौबीसी का अर्घ
(ज्ञानोदय)
(" वृषभ देव से महावीर तक, चौबीसों जिनराज रहे ।
बिम्ब भरत श्री बाहुबली के चौबीसी में राज रहे ॥
ठीक बीच में पार्श्वनाथ देवाधिदेव अतिवीर कहे।
आदिनाथ भी खड्गासन है, कर्म महारिपु जीत गए ॥
सब बिम्बों के चरण में, नमन करूँ शत बार ।
अर्घ चढ़ाऊँ हे प्रभो, खुल जावे शिव द्वार ॥ 70 ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि चतुर्विंशतितीर्थंकर भरत - बाहुबली आदि सर्व जिनेन्द्रेभ्यो नमः .... ।
समवसरण का अर्थ
समवसरण है पार्श्वनाथ का, उनमें जितने बिम्ब रहे।
अर्घ चढ़ाऊँ मन में केवल, आप मात्र का बिम्ब रहे ॥ 71 ॥
ॐ ह्रीं समवशरणस्य श्री पार्श्वनाथादि जिनेन्द्रेभ्यो नमः अर्घ्यं .... ।
गणधर मंदिर का अर्घ
दस गणधर है पार्श्व के, नमा सभी को शीश ।
नाम स्वयंभू आदि है, अर्घ चढ़ाऊँ ईश ॥ 72 ॥
ॐ ह्रीं स्वयंभू आदि सर्व गणधरेभ्यो नमः अर्घ्यं .... ।
पार्श्वनाथ जिनमंदिर जी के चारों दिशि में मंदिर है।
तीन-तीन जिनबिम्ब सभी में, सबको मेरा वन्दन है ।
जल- फल आदिक अर्ध बनाकर, इन सबको मैं भेट करूँ।
पूजा करके हे स्वामी मैं, मुक्ति वधू से भेट सकूँ ॥ 73 ॥
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ चतुः दिशि स्थित सर्व जिनालयेभ्यो नमः अर्घ्यं .... ।
मानस्तम्भों के अर्ध्य
जिसे देखते ही जीवों का मान स्तम्भित हो जाता।
मानस्तम्भ ही यहाँ विराजे, अर्घ चढ़ाऊँ शिवदाता ॥ 74 ॥
ॐ ह्रीं मानस्तम्भस्थित सर्व जिनबिम्बेभ्यो नमः अर्घ्यं .... ।
पूर्णार्घ्य
घत्ता
हे पार्श्व जिनेश्वर, तुम परमेश्वर, आप चरण में वन्दन है ।
जो शरण गहेंगे, चरण रहेंगे, मिट जावे भव क्रन्दन ये ॥
हम अर्घ सजाकर, भाव लगाकर, पूजा करते अविरल हैं ।
तव नाम रटेंगे, पाप मिटेंगे, मिट जावेगी खलबल ये ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्ह नमः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाप्यमंत्र
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः । ( 108 बार
जयमाला
चौथा कल्याणक हुआ, जहाँ पार्श्व का पूज्य
कहूँ मालिका क्षेत्र की बनने को मैं पूज्य ॥1॥ "
( ज्ञानोदय)
पार्श्वनाथ ने अश्व सुवन में, दीक्षा लेकर विहरण से ।
कई वनों को कई नगर को, पूत किया था चरणन से ॥
चार माह के बाद सुनो वे, बिजौलिया के जंगल में ।
नाम रहा था भीमावन जो, भीम भयंकर जंगल है ॥ 2 ॥
आकर के इक बृहद् शिला पर ध्यान लगाने बैठ गए ।
अमित काल के कर्म नाशने, निज आतम में पैठ गए ||
उसी समय आकाश मार्ग से, संवर सुर जो ज्योतिष था ।
विमान उसका जाता था सो, रुका पार्श्व के ऊपर आ ॥ 3 ॥
सुर ने सोचा नीचे कोई, महापुरुष हो देखूँ जा ।
नीचे आकर देखा तो अति, क्रोध बढ़ा था उसका हा ॥
क्रोधित होकर महा भयंकर, ओले पत्थर बरसाएँ ।
कठोर कर्कश वचनों से भी पुनः पुनः वह भरमाएँ ॥ 4 ॥
लेकिन प्रभु तो किंचित् भी ना, डरे नहीं हैरान हुए।
नहीं ध्यान से डिगे न उनके, कलुषित खोटे भाव हुए ॥
सप्तम दिन में सुनो अचानक, नाग इन्द्र का आसन जो ।
अचल रहा पर काँप उठा सो, हुआ सुचंचल मानस औ ॥ 5 ॥
अवधिज्ञान से देखा हा! हा!!, किया सुरक्षण मेरा जी ।
आया है उपसर्ग उन्हीं पर, मैं हूँ उनका चेला जी ॥
दूर न कर दूँ उसको तो फिर, क्या मतलब है ताकत से ।
नहीं करूँ तो रहा कृतघ्नी, बन जाऊँ दुख गागर मैं ॥ 6 ॥
यही सोचकर उसने आकर फैलाकर फणमण्डल को ।
छाया की थी जिसे देखकर भाग गया शठ कमठ अहो ॥
जैसे ही उपसर्ग टला धरणेन्द्र, युगल के माध्यम से।
सात दिनों से लगातार जो, किया गया था भगवन पे ॥ 7 ॥
वैसे ही चउ घाति नाश हो, तत्क्षण केवलज्ञान हुआ ।
और उसी क्षण दुष्ट कमठ भी, पार्श्व चरण प्रतिपात हुआ ।
पारस के बस परस मात्र से, कमठ अयस भी कनक बना ।
मिथ्यामल को धोकर वह भी, सब देवों में चमक उठा ॥ 8 ॥
काँप उठे थे सुर इन्द्रों के सिंहासन अरु मुकुट झुके
जय-जय करके वैमानिक के । साथ देव सब आ पहुँचे ॥
शचि स्वामी की आज्ञा से ही ,कुबेर भी झट आया था
समवसरण को रचकर उसने, जीवन सफल बनाया था ॥ 9 ॥
अब सुन लो इतिहास कहूँ मैं, तीर्थ क्षेत्र का प्यारा जो ।
शिलालेख पर खुदा हुआ है, क्षेत्र महत्ता गाता जो ॥
श्रेष्ठी श्री लोलार्क एकदा, इस पथ से ही जाता था ।
निशा बढ़ी सो इसी स्थान पर, रात बिताना भाया था ॥ 10 ॥
सपना आया विभावरी में, देख पास जो कुण्ड रहा ।
उसमें है श्री पार्श्वनाथ जी, निकाल उनको शीघ्र अहा ॥
और सुनो यह स्थान तीर्थ है, पार्श्वनाथ से पूज्य हुआ।
चौथे कल्याणक को पाकर, प्रभु ने इसको पूज्य किया ॥ 11 ॥
समवसरण भी लगा यहाँ पर, दिव्य देशना पायी थी ।
सुर-नर किन्नर ने आकर के, महिमा इसकी गायी थी ॥
ज्ञान क्षेत्र पर मन्दिर बनवा, अब जग में विख्यात करो ।
श्रेष्ठी प्रतिमा बाहर लाकर, क्षेत्र प्रतिष्ठा ख्यात करो ॥ 12 ॥
नींद खुली तो श्रेष्ठी को कुछ नहीं हुआ विश्वास यदा ।
सुर ने जाकर सेठानी को, स्वप्न दिया था खास तदा ॥
सेठानी ने कहा देव तुम, कहो सेठ से जाकर के ।
मंदिर निश्चित बनवायेगा, श्रेष्ठी धर्म उजागर है ॥ 13 ॥
सेठानी की बात मानकर, देव सेठ के पास गया ।
और पुनः दे सपना इस विध, बात कही थी खास अहा ॥
यही रहा वह भीमावन है, जहाँ पार्श्वप्रभु आये थे।
रेवा सरिता का तट है यह, येही सुनो शिलाएँ हैं ॥ 14 ॥
मूर्ख कमठ ने जिनको बरसा, नरक द्वार को खोला था ।
प्रभु ने समता रखकर सबमें, मुक्ति द्वार को खोला था ॥
आदि-आदि दे सपना सुर तो, उसी समय निज धाम गया।
और सेठ ने उठकर मंदिर, बनवाने का काम किया ॥ 15 ॥ "
कुण्ड खोदकर बिम्ब निकाला, पार्श्वनाथ का श्रेष्ठी ने ।
धन्य किया था अपना जीवन बना भावना ज्येष्ठी ये ॥ ?
जिस दिन से यह बिम्ब निकाला, इसका पानी उस दिन से ।
औषध बनकर रोग मिटाता, रही महत्ता अब तक ये ॥ 16 ॥
इसी बात को बड़ी शिला पर, खुदवा टंकोत्कीर्ण किया ।
वही बताता प्रभु का केवल, ज्ञान महोत्सव यहीं हुआ ।
देख शिलाएँ लगता मानों, रखी हुई है सुरकृत है।
मन भावन है सजी हुई है, सरल सहज है अद्भुत है ॥ 17 ॥
और सुनो अंग्रेज लोग आ शिलालेख के नीचे जी ।
धन दौलत भंडार मिलेंगे यही सोचकर रीझे जी ॥
धन पाने को शिलालेख में, बारूद ले विस्फोट किया |
दुग्धधार तब निकल पड़ी सो, उनका भण्डाफोड़ हुआ ॥ 18 ॥
उसके ही हैं छेद अभी भी, शिलालेख को फोड़ा जो ।
दिख कर कहते पारस प्रभु ने, यहाँ कर्म को फोड़ा औ ॥
मधुमक्खी के यूथों ने भी, आकर उनको काटा था ।
डंक मारकर उनके तन से, तीक्ष्ण चुभाया काँटा था ॥ 19 ॥
अद्यावधि भी कई लोग आ, भक्ति भाव से पारस की ।
अर्चा चर्चा करके प्रभु की, पूजन कर भव तारक की ॥
रोग मिटाते शोक मिटाते, सौख्य शान्ति को पाते हैं ।
आप चरण से आकर्षित हो, फिर-फिर दौड़े आते हैं । 20 ॥
आदि-आदि है चमत्कार जो, अनुभव में भी आते हैं ।
मनमाना सब मिलता उसको, जो भी प्रभुगुण गाते हैं ।
पार्श्व आपके गुण गाने में, सुरगुरु भी तो हार गया ।
फिर भी गुण गा करके मैंने, भाव भक्ति से काम किया ॥ 21 ॥ -
गल्ती होवे उसमें जो कुछ, विज्ञ शोधकर पढ़ लेवे ।
क्षमा भाव धर विधान करके, जीवन अपना गढ़ लेवे ॥
आप गुणों को अमित काल तक, लिख-लिखकर थक जाऊँ मैं।
तो भी पूर्ण न होंगे स्वामी, उनका पार न पाऊँ मैं ॥ 22 ॥
जयमाला यह पूर्ण करूँ मैं, चरणों शीश झुकाऊँ मैं |
आप शरण को छोड़ कभी भी, और कहीं नहिं जाऊँ मैं ॥
आप चरण मम हृदय कमल पर, शिला उकेरित ज्यों होवे ।
निद्रा में या सपने में भी, शरण आपका पथ होवे ॥ 23 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्हं नमः जयमाला पूर्णा ... |
आशीर्वाद
पारसनाथ जिनेश्वर की जो, नित्याराधन करते हैं ।
पाप-ताप - संताप मेंटकर, भव सागर से तरते हैं ।
मुक्ति-वधू का वरण करें फिर, लौट न भव में आते हैं।
अष्ट-गुणों से शोभित होकर, निज में ही रम जाते हैं ॥
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ।
प्रशस्ति
" शान्ति वीर शिव ज्ञान सिन्धु के, शिष्य सुविद्यासागर हैं ।
शिष्य रहे हैं दूजे उनके, विवेक सिन्धु गुणआगर हैं ।
उनकी शिष्या रही पाँचवी, नाम रहा विज्ञानमती ।
रचा उसी ने भाव भक्ति से होकर के भी अल्पमती ॥
आँवा नगरी शान्तिनाथ का, अतिशय जग में न्यारा है।
दो मंदिर हैं विशाल उन्नत, नसिया मंदिर प्यारा है ।
प्रभाचन्द्र शुभचन्द्र साधु जिन, चन्द्र मुनीश्वर गुरुओं के ।
स्तम्भ बनाये धर्मचन्द्र ने, पूज्य सुसाधक पुरुओं के ॥
यही हुआ यह विधान पूरा,बिजौलिया के स्वामी का ।
पार्श्वनाथ उपसर्ग विजेता सर्व लोक में नामी का ॥?
" आषाढ़ी के कृष्ण पक्ष की अष्टम तिथि का दिन जानो ।
वार रहा है चौथा जिसमें पूर्ण हुआ है यह मानो ॥
वीर मोक्ष पच्चीस शतक सैंतीस वर्ष का संवत है।
भव के क्षय का लक्ष्य बनाकर, रचा गया यह अर्चन है |
सागर सूरज संत धरा पर, जब तक रह उपकार करे ।
विधान करके पारसनाथ का भविजन निज उपकार करें