April 6, 2021 user 0 Comment विधान पूजन
भगवान श्री पद्मप्रभ जिनपूजा
-अथ स्थापना-
पद्म प्रभू जिन मुक्तिरमा के नाथ हैं।
श्री आनन्त्य चतुष्टय सुगुण सनाथ हैं।।
गणधर मुनिगण हृदय कमल में धारते।
आह्वानन कर जजत कर्म संहारते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चौपाई छंद-
कर्म पंक प्रक्षालन काज, जल से पूजूँ जिन चरणाब्ज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घिसूँ कपूर मिलाय, पूजूँ आप चरण सुखदाय।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र किरण सम तंदुल श्वेत, पुंज चढ़ाऊँ निज पद हेत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुल कमल सुम हरसिंगार, चरण चढ़ाऊँ हर्ष अपार।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कलाकंद गुझिया पकवान, तुम्हें चढ़ाऊँ भवदु:ख हान।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति करे उद्योत, पूजत ही हो निज प्रद्योत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांग अग्नि में ज्वाल, दुरित कर्म जलते तत्काल।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला द्राक्ष बदाम, पूजत हो निज में विश्राम।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य चढ़ाय जजूँ जिनराज, प्रभु तुम तारण तरण जिहाज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत ‘ज्ञानमती’ सुख सद्म।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मप्रभू पदपद्म में, शांतीधार करंत।
चउसंघ में भी शांति हो, मिले भवोदधि अंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल कमल नीले कमल, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पंचकल्याणक अर्घ्य
-चौबोल छंद-
कौशाम्बी नगरी के राजा, धरण राज के आंगन ही।
वर्षे रतन सुसीमा माता, हर्षी गर्भ बसे प्रभुजी।।
माघकृष्ण छठ तिथि उत्तम थी, इन्द्रों ने इत आ करके।
गर्भ महोत्सव किया मुदित हो, हम भी पूजें रुचि धरके।।१।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां श्रीपद्मप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक कृष्णा तेरस तिथि में, पद्मप्रभू ने जन्म लिया।
इन्द्राणी माँ के प्रसूतिगृह, जाकर शिशु का दर्श किया।।
सुरपति जिन शिशु गोद में लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
नेत्र हजार बना करके प्रभु, दर्शन कर अति मुदित हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मृति से विरक्त होकर, कार्तिक कृष्णा तेरस में।
निवृति करि पालकी सजाकर, इन्द्र सभी आये क्षण में।।
सुभग मनोहर वन में पहुँचे, प्रभु ने दीक्षा स्वयं लिया।
बेला कर ध्यानस्थ हो गये, जजत मिले वैराग्य प्रिया।।३।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी पूनम तिथि शुभ थी, नाम मनोहर वन उत्तम।
शुक्लध्यान से घात घातिया, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियाँ जिनगुण गायें।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापूर्णिमायां श्रीपद्मप्रभजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि चौथ तिथी सायं, प्रभु सम्मेद शिखर गिरि से।
एक हजार मुनी के संग में, मुक्ति राज्य पाया सुख से।।
इन्द्र असंख्यों देव देवियों, सहित जहाँ आये तत्क्षण।
प्रभु निर्वाण कल्याणक पूजे, जजूँ भक्ति से मैं इस क्षण।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपद्मप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ (दोहा)-
श्री पद्मप्रभ पदकमल, शिवलक्ष्मी के धाम।
पूजूँ पूरण अर्घ ले, मिले निजातम धाम।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभपंचकल्याणकाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय नम:।
जयमाला
-दोहा-
श्रीपद्मप्रभु गुणजलधि, परमानंद निधान।
गाऊँ गुणमणि मालिका, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
-चामरछंद-
देवदेव आपके पदारिंवद में नमूँ।
मोह शत्रु नाशके समस्त दोष को वमूँ।।
नाथ! आप भक्ति ही अपूर्व कामधेनु है।
दु:खवार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य देन है।।२।।
जीव तत्त्व तीन भेद रूप जग प्रसिद्ध है।
बाह्य अंतरातमा व परम आत्म सिद्ध हैं।।
मैं सुखी दु:खी अनाथ नाथ निर्धनी धनी।
इष्ट मित्र हीन दीन आधि व्याधियाँ घनी।।३।।
जन्म मरण रोग शोक आदि कष्ट देह में।
देह आत्म एक है अतेव दु:ख हैं घने।।
आतमा अनादि से स्वयं अशुद्ध कर्म से।
पुत्र पुत्रियाँ कुटुंब हैं समस्त आत्म के।।४।।
मोह बुद्धि से स्वयं बहीरात्मा कहा।
अंतरातमा बने जिनेन्द्र भक्ति से अहा।।
मैं सदैव शुद्ध सिद्ध एक चित्स्वरूप हूँ।
शुद्ध नय से मैं अनंत ज्ञान दर्श रूप हूँ।।५।।
आप भक्ति के प्रसाद शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो।
आप भक्ति के प्रसाद दर्श मोह नाश हो।।
आप भक्ति के प्रसाद से चरित्र धारके।
जन्मवार्धि से तिरूँ प्रभो! सुभक्तिनाव से।।६।।
दो शतक पचास धनुष तुंग आप देह है।
तीस लाख वर्ष पूर्व आयु थी जिनेश हे।।
पद्मरागमणि समान देह दीप्तमान है।
लालकमल चिन्ह से हि आपकी पिछान है।।७।।
वङ्का चामरादि एक सौ दशे गणाधिपा।
तीन लाख तीस सहस साधु भक्ति में सदा।।
चार लाख बीस सहस आयिकाएँ शोभतीं।
तीन रत्न धारके अनंत दु:ख धोवतीं।।८।।
तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका कहे।
जैन धर्म प्रीति से असंख्य कर्म को दहें।।
एकदेश संयमी हो देव आयु बांधते।
सम्यक्त्व रत्न से हि वो अनंत भव निवारते।।९।।
धन्य आज की घड़ी जिनेन्द्र अर्चना करूँ।
पद्मप्रभ की भक्ति से यमारि खंडना करूँ।।
राग द्वेष शत्रु की स्वयंहि वंचना करूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ ज्योति से अपूर्व संपदा भरूँ।।१०।।
-दोहा-
धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर ।
मेरे कलिमल धोय के, भर दीजे सुखपूर ।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
शांतये शांतिधारा । दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
छठे तीर्थंकर आप, सौ इन्द्रों से वंद्य हो।
जजत बनें निष्पाप, दुख दरिद्र संकट टलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
श्री पùप्रभ जिनपूजा
छन्द रोड़क (मदावलिप्त कपोल)
पदमराग मनि वरन धरन तन तुंग अढ़ाई।
शतक दण्ड अघ खण्ड, सकल सुर सेवत आई।।
धरनि तात विख्यात सुसीमाजू के नन्दन।
पदम चरण धरि रागसु, थापों इत करि वन्दन।।
ओं ह्रीं श्री पùप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्री पùप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री पùप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक
(चाल होली की ताल जत्त)
पूजों भावसों, श्रीपùनाथ पद सार, पूजों भावसों।। टेक।।
गंगाजल अति प्रासुक लीनों, सौरभ सकल मिलाय।
मन वच तन त्रय धार देत ही, जनम जरा मृत जाय।।
पूजों भावसों श्रीपùनाथ पद सार, पूजों भावसों।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागर कपूर चन्दन घसि, केशर संग मिलाय।
भवतपहरन चरन पर वारौं, मिथ्याताप मिटाय।। पूजौं
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल उज्जवल गन्ध अनी जुत, कनक थाल भर लाय।
पुंज धरौ। तुम चरनन आगैं, मोहि अखय पद दाय।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात मन्दार कल्पतरु, जनित सुमन शुचि लाय।
समरशूल निरमूल करन कौं, तुम पद-पù चढ़ाय।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि भाय।
क्षुधा रोग निर्वारन कारन, जजौं हरष उर लाय।। पूजौं
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति जगाय ललित वर, धूम रहित अभिराम।
तिमिर मोह नाशन के कारन, जजौं चरण गुणधाम।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागर मलयागर चन्दन, चूरि सुगन्ध बनाय।
अग्नि मांहि जारों तुम आगैं, अष्ट करम जरि जाय।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरस वरन रसना मन भावन, पावन फल अधिकार।
तासौं पूजों जुगम चरन यह, विघन करम निरवार।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदि मिलाय गाय गुण, भगति भाव उमगाय।
जजौं तुम्हें शिव तिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय।। पूजौं।।
ओं ह्रीं श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अनघ्र्यपद प्राप्तये अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अध्र्य
(छन्द दु्रतविलम्बित तथा सुन्दरी मात्रा 16)
असित माघ सु छट्ठ बखानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये।
उरध ग्रीवकसौं चय राजजी, जजत इन्द्र जजैं हम आजजी।।
ओं ह्रीं माघकृष्णाषष्ठीदिने गर्भमंगलमण्डिताय श्रीपùप्रभाजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
सुकल कार्तिक तेरस कों जये, त्रिजग जीव सु आनन्द कों लये।
नगर स्वर्गसमान कुसम्बिका, जजतु हैं हरिसंजुत अम्बिका।।
ओं ह्रीं कार्तिक शुक्ला त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
सुकल तेरस कार्तिक भावनो, तप धर्यो वन षष्टम पावनो।
करत आतम ध्यान धुरन्धरो, जजत हैं हम पाप सबैं हरो।।
ओं ह्रीं कार्तिक शुक्ला त्रयोदश्यां तपोमंगल मण्डिताय श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
सुकल पूनम चैत सुहावनी, परमकेवल सो दिन पावनी।
सुर सुरेश नरेश जजैं तहाँ, हम जजैं पद पंकज की इहां।।
ओं ह्रीं चित्र पूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपùप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपमाीति स्वाहा।
असित फागुन चैथ सु जानियो, सकल कर्म महा रिपु हानियो।
गिरि समेदधकी शिव को गये, हम जजैं पद ध्यान विषै लये।।
ओं ह्रीं फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी दिने मोक्षमंगल मण्डिताय श्री पùप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)
1. ओं ह्री सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, कुसुमवरयक्ष, मनोवेगायक्षी, पंचदशतिधिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्रपेजिताय श्रीपùप्रभुजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं. कुसुमवरयक्ष, मनोवेगायक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीपùप्रभुजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
(घत्ता)
जय पù जिनेशा, शिव सùेशा, पाद पù जजि पùेशा।
जय भव तम भंजन, मुनि मन कंजन, रंजन को दिवसाधेशा।
(छन्द रूप चैपाई 16 मात्रा)
जय जय जिन भवि जन हितकारी, जय जय जिन भवसागरतारी।
जय जय समवसरण धन धारी, जय जय वीतराग हितकारी।।
जय तुम सप्त तत्त्व विधि भाख्यौ, जय जय नव पदार्थ लखि आख्यो।
जय षट द्रव्य पंचजुत काया, जय सब भेद सहित दरशाया।।
जय गुणधान जीव परमानों, जय पहिले अनन्त जिय आनो।
जय दूजे सासादन माहीं, तेरह कोड़ि जीव धित आंही।।
जय तीजे मिश्रित गुणथाने, चार अधिक शत कोड़ि प्रमाने।
जय चैथे अविरति-गुण जीवा, कोड़ि सातसौं रहे सदीवा।।
जय जय देशवरत में शेषा, तेरह कोड़ि जीव तिथि वेशा।
जय प्रमत्त षट शून्य दोय वसु, पांच तीन नव पांच जीव लसु।।
जय जय अपरमत्त गुण कोरं, लच्छ छयानवै सहस बहोरं।
निन्यानवे एकशत तीना, एते मुनि तित रहहिं प्रवीना।।
जय जय अष्टम में दुई धारा, आठ शतक सत्तानों सारा।
उपशम में दुइसो निन्यानों, क्षपक मांहि तसु दूने जानों।।
जय इतने इतने हितकारी, नवें दशें जुग श्रेणी धारी।
जय ग्यारे उपशम मग गामी, दौसे निन्यानौं अघगामी।।
जय जय खीणमोह गुणथानों, मुनि शत पांच अधिक अट्ठानों।
जय जय तेरह में अरहंता जुग नभ पन वसु नव वसु तंता।।
एते राजतु हैं चतुरानन, हम वन्दैं पद धुतिकरि आनन।
जय अजोग गुण में जे देवा, पनसौ ठानों करों सु सेवा।।
तित अ इ उ ़ लृ तिथि भाषत, करि थिति फिरि शिव आनन्द चाखत।
ए उतकृष्ट सकल गुणधानी, तथा जघन मध्यम जे प्राणी।।
तीनों लोक सदन के वासी, नित गुण परजाय भेद परकाशी।
तथा और द्रव्यन के जेते, गुण परजाय भेद हैं तेते।।
तीनों काल तने जु अनन्ता, सो तुम जानत जुगपत सन्ता।
सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे।।
फेरि अचल थल वासा कीनों, गुण अनन्त निज आनन्द भीनों।
चरम देह तैं किंचित ऊनो, नर आकृति तित हैं नित गूनों।
जय जय सिद्ध देव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी।
मोकौं दुःख सागर तैं काढ़ो, ‘वृन्दावन’ जाँचतु हैं ठाढ़ो।।
ओं ह्रीं श्री पùप्रभाजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जय जय जिनचंदा पùानन्दा, परम सुमति पùाधारी।
जय जन हितकारी, दया विचारी, जय जय जिनवर अधिकारी।।
।। इत्याशीर्वादः-शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
कुसुमवर यक्ष का अर्घ
पùप्रभु के शासन रक्षक, कुसुम यक्ष आहानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं कुसुमवरयक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
मनोवेगा यक्षी का अर्घ
पùप्रभु की शासन रक्षक वेगा को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ मात तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं मनोवेगायक्षिदेव्यै जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
पùप्रभु के क्षेत्रपाल जी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ मात तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौ। ह्रीं अत्रस्थ पùप्रभु जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।
।। इति।।