ज्ञानोदय छन्द
भव समुद्र से तारणहारे, अनादि से तीर्थंकर हैं,
हुए हो रहे आगे होंगे, त्रिभुवन के क्षेमंकर हैं।
जिनके मुख से पाप विनाशक, व्रत की विधियाँ निकली हैं,
ऐसे उपकारी जिनवर की, पूजन मैंने रच ली है ॥
ओं ह्रीं श्री तीर्थकर जिनेन्द्र। अत्र अवतर अवतर संवौषद आह्वानम्।
अत्र तिष्ठ तिष्ठठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सत्रिधिकरणम् ।
सखी छन्द
जिन श्रद्धा का जल लाऊँ, जिनवर के चरण चढ़ाऊँ।
व्रत मुकुट सप्तमी धारू, मृति जन्म जरा निरवारू ॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
उपशम का चन्दन लाया, जिन पूजन कर हरषाया।
व्रत मुकुट सप्तमी धारू, भव का संताप निवारू ॥
ओं ही श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।
व्रत तप के मोती लाऊँ, जिनवर की पूज रचाऊँ।
व्रत मुकुट सप्तमी धारू, इन्द्रिय सुख रति परिहारू ॥
ओं ही श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय अक्षयपरप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
गुण गण के सुम चुन लाऊँ, जिनवर के चरण चढ़ाऊँ।
व्रत मुकुट सप्तमी पाऊँ, व्रत ब्रह्मचर्य मन लाऊँ ॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्प नि. स्वाहा।
अनशन धर क्षुधा निवाऊँ, चरुवर जिन पद में धाकै।
व्रत मुकुट सप्तमी प्यारी, अष्टादश दोष निवारी ॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि. स्वाहा।
व्रत मोह जीतने वाला, गुण रत्न दिखाने वाला।
व्रत मुकुट सप्तमी चारू, आतम में ज्ञान उजारू ॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
समकित अष्टांग प्रजाऊँ, मिध्यात्व असंयम वारूँ।
व्रत मुकुट सप्तमी साँची, गुरु ने पुराण में वाँची ॥
ह्रीं श्रीतीर्थकरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि स्वाहा। २।
ओं श्रावण सित सातें प्यारी, दी सखी घरें व्रत न्यारी।
व्रत मुकुट सप्तमी जानी, क्रमशः सुर शिव सुख दानी ॥
ओ ही श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
श्रावक मुनि व्रत सुखकारी, व्रत करना है हितकारी।
श्रावण सित सातें प्यारी, जिन पार्श्व वरें शिवनारी ॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय अनर्धपदप्राप्तये अर्थ नि. स्वाहा।
मुकुट सप्तमी व्रत कथा यशोगान
दोहा
मुकुट सप्तमी व्रत कथा, सुनो भव्य धर ध्यान।
कन्या द्वय व्रत पाल के, कर लेतीं उत्थान ॥
ज्ञानोदय छन्द
जम्बुद्वीप कुरुजांगल देशे, हस्तिनागपुर नगरी में,
विजयसेन राजा रानी थी, विजयवती गजनगरी में।
मुकुट शेखरी सुविधि शेखरी, इनकी दो कन्याये थीं,
एक दूसरे के बिन क्षण भर, नहिं रहतीं प्रतिभायें थीं ॥१॥
अवध भूप सुत त्रिलोकमणि को, द्वय कन्यायें व्याहीं थीं,
घनी प्रीति उनकी नहिं बिछुड़े, ऐसी शादी चाही थीं।
चारण ऋषिवर बुद्धि सुबुद्धि, भिक्षा चर्चा को आते,
द्वय ऋषि को विधि से राजादिक, दे आहार सौख्य पाते ॥२॥
नृप ने मुनि से कन्याओं की, प्रीति भवान्तर सुन जानी,
एक सुता धनदत्त सेठ की, इक माली कन्या जानी।
सेठ सुता जिनमति कहलायी, माली कन्या वनमति थी,
एक दिगम्बर मुनि से द्वय ने, मुकुट सप्तमी व्रत ली थीं ॥३॥
एक दिवस दोनों कन्यायें, खेल रही थीं उपवन में,
वहीं सर्प ने डसा उन्हें तो, नमस्कार जपती मन में।
दोनों मरकर स्वर्ग पहुँचती, आकर तव पुत्री बनतीं,
भवान्तरों की कथा श्रवण कर, दोनों श्रावक व्रत धरतीं ॥४॥
श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन, मुकुट सप्तमी व्रत करतीं,
ओं ह्रीं जिनेश्वराय नमः का, त्रय संध्या में जप करतीं।
सात वर्ष व्रत करके दोनों, विधि से उद्यापन करतीं,
समाधि मरण साध द्वय सखियाँ, स्वर्ग लोक में सुर बनतीं।॥५॥
आष्टाह्निक में नन्दीश्वर जा, शाश्वत प्रतिमायें पूजें,
समवसरण में वे सुर दोनों, प्रभु से अपने भव पूछें।
अन्य दिनों में पंचमेरु की, करें वन्दना थुति करके,
निज विमान में जिन चैत्यों की, करे वन्दना रुचि धरके ॥६॥
स्वर्गों से आ सखी देव द्वय, नरभव पा संयम धरते,
अल्प भवों में दुखसागर से, पार होंय शिव को वरते।
जो भी नर नारी इस व्रत का, यथाशक्ति पालन करते,
वे सुर नर भव के सुख पाकर, मृदुमति शिवपुर में बसते ॥७॥
ओं ह्रीं श्रीतीर्थंकरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्धं नि. स्वाहा ।।
दोहा
मोक्ष मुकुट सातें दिवस, व्रत धारो सब लोग,
दुख दारिद्र विपद टलें, होवें भक्त निरोग ॥
। इति शुभम् भूयात् ।