पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्चयदो।
चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं।।८।।
व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता।
होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।।
है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्ध भाव का ही कर्ता।
जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दु:ख का हर्ता।।८।।
अर्थ — जीव व्यवहारनय से पुद्गलकर्मादि का कर्ता है किन्तु निश्चयनय से चेतन भावों का कत्र्ता है और शुद्धनय से शुद्ध भावों का कर्ता है। यहाँ निश्चयनय से अशुद्ध निश्चयनय लेना है और चेतन भावों से जीव के रागादि भावों को लेना है, क्योंकि आगे शुद्ध नय से अपने ही शुद्ध भावों का कर्ता कहा है।
प्रश्न - पुद्गल कर्म कौन-कौन से हैं?
उत्तर - ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि आठ द्रव्य कर्म और छ: पर्याप्ति और तीन शरीर-ये नौ नोकर्म पुद्गल कर्म कहलाते हैं।
प्रश्न - भाव कर्म कौन से हैं?
उत्तर - राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म हैं।
प्रश्न - जीव के शुद्ध भाव कौन से हैं?
उत्तर - केवलज्ञान और केवलदर्शन जीव के शुद्धभाव हैं।
प्रश्न - कत्र्ता किसको कहते हैं ?
उत्तर - क्रिया या कार्य को करने वाले को कत्र्ता कहते हैं।
प्रश्न - नोकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणा को नोकर्म कहते हैं।
प्रश्न - जीव व्यवहार नय से किसका कत्र्ता है ?
उत्तर - व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का, नोकर्म का तथा घट-पटादिक का कत्र्ता है।
प्रश्न - अशुद्ध व शुद्ध निश्चयनय से किसका कर्ता है ?
उत्तर - अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष आदि भाव कर्मों का कत्र्ता है, शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चेतन भावों का कर्ता है, सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से कत्र्ता-कर्म-क्रिया का भेद ही नहीं है-तीनों एक हैं।
प्रश्न - राग-द्वेषादि को अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के क्यों कहते हैं ?
उत्तर - कर्मोपाधि से राग-द्वेष उत्पन्न होता है इसलिए अशुद्ध है। जिस समय राग-द्वेष होते हैं, उस समय अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होकर होते हैं। राग-द्वेष आदि विकारों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मा से भिन्न नहीं रहता है अत: निश्चय है। इन दोनों से मिलकर अशुद्ध निश्चयनय शब्द की निष्पत्ति हुई है।
प्रश्न - जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता क्यों कहा जाता है ?
उत्तर - व्यवहारनय से लौकिक दृष्टि से निमित्त-नैमित्तिक संबंध से जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता कहा जाता है, क्योंकि घट-पट की निष्पत्ति में जीव का योग (मन-वचन-काय) उपयोग (ज्ञान) निमित्त है। निश्चयनय से पुद्गल की परिणति पुद्गल में है और आत्मा की परिणति आत्मा में है अत: आत्मा घट-पट आदि का कत्र्ता नहीं है। जैसे निश्चयनय से पुद्गल पिण्डरूप उपादान कारण से उत्पन्न घट व्यवहार में वुंâभकारकृत कहलाता है, क्योंकि उसमें कुंभकार निमित्त है, उसी प्रकार अपने उपादान से कर्मरूप परिणाम निमित्त होते हैं, अत: निमित्त की अपेक्षा से जीव कर्मों का कत्र्ता और तज्जन्य कर्मों का अनुभव करने वाला होने से भोक्ता भी कहलाता है।