दर्शंन देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनं।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्।।१।।
अर्थ — देवाधिदेव जिनेन्द्र देव का दर्शन पापों का नाश करने वाला है स्वर्ग जाने के लिए सीढ़ी के समान तथा मोक्ष जाने का साधन है।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्देनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्।।२।।
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने से तथा साधुओं की वन्दना करने से पाप बहुत समय तक नहीं ठहरते। जैसे—छिद्र सहित हाथ में पानी नहीं ठहरता।
वीतराग मुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभम्।
जन्मजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति।।३।।
अर्थ — पद्मराग मणि के समान शोभनीक श्री वीतराग भगवान् के दर्शन करने से अनेक जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं।
दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसारध्वान्त नाशनम् ।
बोधनं चित्त पद्मस्य, समस्थार्थ प्रकाशनम्।।४।।
अर्थ — सूर्य के समान तेजस्वी जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से, संसार रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है, चित्तरूपी कमल खिलता है और सर्वपदार्थ प्रकाश में आते हैं अर्थात् जाने जाते हैं।
दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृत—वर्षणम्।
जन्म—दाह विनाशय, वर्धनं सुख—वारिधे:।।५।।
अर्थ — चन्द्रमा के समान श्री जिनेन्द्र देव का दर्शन करने से सच्चेधर्मरूपी अमृत की वर्षा होती है, संसार के दु:खों का नाश होता है और सुख रूपी समुद्र की वृद्धि होती है।
जीवादितत्त्वप्रतिपादकाय, सम्यक्त्व मुख्याष्टगुणार्णवाय।
प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।६।।
अर्थ — ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव को नमस्कार हो, जो जीवादि सप्त तत्त्वों के बताने वाले, सम्यक्तव आदि आठ गुणों के समुद्र, शांतरूप तथा दिगम्बर हैं।
चिदानन्दैकरूपाय, जिनाय परमात्मने।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम:।।७।।।
अर्थ — जो ज्ञानानंद एक स्वरूप वाले हैं, अष्टकर्मों को जीतने वाले हैं, परमात्म स्वरूप हैं, ऐसे सिद्धात्मा को अपने परमात्म स्वरूप के प्रकाशित होने के लिए नित्य नमस्कार हो।
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम।
तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर।।८।।
अर्थ — आपकी शरण के अलावा संसार में मेरे लिए कोई शरण नहीं है, आप ही शरण हैं, इसलिए करुणाभाव करके, हे जिनेन्द्रदेव! हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
नहि त्राता नहि त्राता, नहि त्राता जगत्त्रये।
वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति।।९।।
अर्थ — तीनों लोक में कोई अपना रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है, रक्षक नहीं है (यदि कोई रक्षक हैं तो वे वीतराग देव आप ही हैं) क्योंकि आपसे बड़ा देव न तो कोई हुआ है और न ही भविष्य में कभी होगा।
जिनेभक्ति र्जिनेभक्ति, र्जिनेभक्ति—र्दिनेदिने।
सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु, सदामेऽस्तु भवे भवे।।१०।।
अर्थ — मैं यह आकांक्षा करता हूँ कि जिनेन्द्र भगवान के प्रति मेरी भक्ति प्रतिदिन और प्रत्येक भव में बनी रहे एवं जिनेन्द्र भगवान मेरे लिए भव—भव में मिलते रहें।
जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्रवत्र्यपि।
स्याच्चेऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:।।११।।
अर्थ — जिनधर्मरहित चक्रवर्ती होना भी अच्छा नहीं है किन्तु जिनधर्म का पालन करते हुए यदि दरिद्री एवं दास बनना पड़े तो वह स्वीकार है।
जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मोटिमुपार्जितम्।
जन्ममृत्यु—जरा—रोगं, हन्यते जिन दर्शनात्।।१२।।
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से करोड़ों जन्मों के एकत्रित किये हुये पाप तथा जन्म, बुढ़ापा, मृत्युरूपी रोग अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं।
अध्या—भवत् सफलता नयन—व्दयस्य,
देव! त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन।
अध्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते में,
संसार—वारिधिरयं चुलुक—प्रमाणं।।१३।।
अर्थ — हे देवाधिदेव ! आपके कल्याणकारी चरण कमलों के दर्शन से मेरे दोनों नेत्र आज सफल हुए। हे तीनों लोक के तिलक स्वरूप आपके प्रताप से मेरा संसार रूपी समुद्र, हाथ में लिये गये चुल्लु भर पानी के समान प्रतीत होता है अर्थात् आपके प्रताप से ही मैं सहज ही संसार समुद्र से पार हो जाऊँगा।
व्रत तिथियों का महत्त्वअष्टमी चाष्टकर्मघ्नी सिद्धिलाभा चतुर्दशी।
पञ्चमी ज्ञानलाभाय, तस्मात्त्रितयमाचरेत्।। पूज्यपादश्रावक, ८४
अर्थ — ‘अष्टमी’ तिथि अष्टकर्मों के नाश करने की प्रतीक है, ‘चतुर्दशी’ तिथि चौदह गुणस्थान की प्रक्रियापूर्ण करके सिद्धि अर्थात् मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करने की सूचक है तथा ‘पञ्चमी’ तिथि पञ्चम ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति को बताती है। अत: इन तीनों तिथियों में व्रत, उपवास आदि विशेष धर्मानुष्ठानों का आचरण करना चाहिए।