भव्य बंधुओं ! ज्ञान, संयम, तप और सेवा, इन चारों का योग चातुर्मास है। जिसमें के साथ—साथ श्रावक भी धर्म का अपूर्व अवसर प्राप्त करते हैं। वर्षा ऋतु का सुयोग—सर्वत्र हरियाली का योग हर जगह योग का ऐसा दृश्य उपस्थित करता है कि इसका वर्षायोग भी सार्थक होता है। यूं तो आषाढ़ कृष्ण १५ से सावन—भादो, आसोज, कार्तिक कृष्ण १५ तक साढ़े तीन माह का चातुर्मास होता है पर रूढ़ि से चातुर्मास ही प्रसिद्ध है। मासक वास स्थितिकल्प के अनुसार साधुगण चातुर्मास के एक माह पूर्व स्थान की गवेषणा में तथा एक माह पश्चात् श्रावकों की संतुष्टि के लिए ठहर सकते हैं। जहाँ साधुगण रहते हैं वहाँ धार्मिक उत्साह और हर्ष हो जाता है। और साधु तथा श्रावकों का धार्मिक योग ही धर्म वर्षा का युग है। चातुर्मास—स्थापना एक महान पुण्य अवसर है। जब श्रावक पपीहे सा प्यासा होकर अपने गुरुजनों को अपने नगर में लाने की सोचता है। और विभिन्न प्रयास करता है। सफलता पुण्यवान को मिलते है और उनके यहाँ मुनिजनों की चातुर्मास स्थापना हो जाती है। लोग काफी पहले से हमसे वचन मांग रहे थे। पर हमने कहा—मुनिजन वचन नहीं प्रवचन देते है। पहले से हमारे चातुर्मास फिक्स नहीं होते। जब पल का ही भरोसा नहीं तो कल का क्या भरोसा ? और फिर मुनिजनों का तो और भी ठिकाना नहीं। एक बार एक पत्रकार ने हमसे कुछ प्रश्न पूछे हमने भी उत्तर दिये। उत्तर पाकर वे इतने संतुष्ट हुए कि बोलने लगे—मैं आगे भी आपसे मिलना चाहता हूँ। आप मुझे अपना एड्रैस दे दीजिए। मैंने कहा—डे्रस ही नहीं तो एड्रेस कहाँ से दूँ।
फकीरों से मत पूछो, पता उनका। जहाँ आसन जमा बैठे, समझो मका उनका।।
साधुगण बहते पानी की तरह गतिशील रहते हैं। लेकिन चातुर्मास के अवसर पर एक स्थान पर ठहरते हैं। क्योंकि जीव रक्षा और आगमिक पद्धति का पालन करना है। इस अवसर पर श्रावकों को काफी धर्म लाभ मिल जाता है। चातुर्मास मंगलमय है।
हमारे गुरूजन जहाँ पर हमको और जन—
जन को धर्म से जोड़ते हैं वही तो वर्षा योग है तो क्या हम उनसे जुडे़ ?
नहीं, तो फिर अब जुड़े तभी तो हमारे लिये भी उनका वर्षायोग मंगलभूत होगा।।
आप ये नहीं सोचना कि वर्षायोग स्थापना मात्र मुनिजनों की है, श्रावकों की नहीं क्योंकि वर्तमान में हीन संहनन के कारण इंद्रनंदि श्रावकाचार में मुनिजनों के लिए वन में वर्षायोग आदि धारण करने की आज्ञा नहीं दी गई है वे नगरों की धर्मशाला, पाठशाला इत्यादि प्रशस्त स्थानों पर रहकर धर्मसाधना और प्रभावना करते हैं। साधुओं का कर्तव्य है कि वे ज्ञान—ध्यान तप में निरत रहें तो श्रावकों के भी कर्तव्य हैं कि—
१. साधुओं की साधना में सहयोगी बनें।
२. जिस संघ की जो अनुशासित पद्धतियाँ हो, जैसे हर कार्य गुरू से पूछकर रखना आदि, आदि का ध्यान रखें।
३. चातुर्मास में संपूर्ण हरी पत्ती का त्याग अवश्य कर देना चाहिए।
४. रात्रि भोजन त्याग आदि का भी पालन करना चाहिए।
५. आपके आठ माह कमाई में जाते हैं मात्र चार माह धर्म के लिए मिले हैं तो क्यों न क्यों उनका सदुपयोग करें।चातुर्मास—
श्रमण संस्कृति का प्रतीक है।
चातुर्मास—धार्मिक आस्था का प्रदीप है।।
चातुर्मास—धर्म कमाने का मौसम है।
चातुर्मास—संत समागम का माध्यम है।।
चातुर्मास—सामाजिक एकता का सूत्र है।
चातुर्मास—वैराग्य जागरण का दूत है।।
चातुर्मास—साधु और श्रावक का योग है।
चातुर्मास—प्रभावना का सफल प्रयोग है।।
चातुर्मास—साधना सिद्धि का मंत्र है।
चातुर्मास—आत्मिक उपलब्धि का तंत्र है।।
चातुर्मास—प्रकृति की मधुर मुस्कान है।
चातुर्मास—खुशहाली की पहचान है।।
चातुर्मास—आत्म स्वरूप में प्रयाण है।
चातुर्मास—ज्ञान वर्षा का अवसर है।।
चातुर्मास—गुण पुण्यों का तरूवर है।
चातुर्मास—चर्तुिवध्ण संघ का मेल है।।
चातुर्मास—मुक्तिपुरी की रेल है।
चातुर्मास—पूजा—भक्ति का त्यौहार है।।
चातुर्मास—मंदिर—चैत्यालयों की बहार है।
चातुर्मास—आत्मज्ञान का शिविर है।।
चातुर्मास—धर्म—जागृति की लहर है।
चातुर्मास—धर्म सुगंधी का झोंका है।।
चातुर्मास—तप—त्याग का मौका है।
चातुर्मास—सदुपयोग की बेला है।।
चातुर्मास—ज्ञानीजनों का मेला है।
चातुर्मास—आत्मा को निहारने का दर्पण है। चातुर्मास—सद्गुण भरने का बर्तन है।।
चातुर्मास—मन मयूर का नर्तन है। चातुर्मास—चौबीस प्रभु का अर्चन है।।
चातुर्मास—सीखने—समझने का समय है। चातुर्मास—जीवों के लिए अभय है।।
चातुर्मास—संयम रक्षा का प्रयास है। चातुर्मास—आत्मिक गुणों का विकास है।।
चातुर्मास—आत्म सज्जा का आभूषण है। चातुर्मास—लाता पर्व पर्युषण है।।
चातुर्मास—जागने चलने और पाने का इशारा है। चातुर्मास—निग्र्रंथ गुरू की जयकारा है।।
चातुर्मास—आध्यात्मिकता की दीवाली है। चातुर्मास—बाह्य अंतरंग की हरियाली है।।
चातुर्मास—श्रमण संस्कारों का उद्घोष है। चातुर्मास—महावीर प्रभु का जयघोष है।।
जय बोलिए भगवान महावीर स्वामी की जय
हर धर्म, सम्प्रदाय, जाति और वर्ग विशेष में प्राचीनकाल से अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कतिपय पहचान चिन्ह / चिन्हों का उपयोग किया जाता रहा है। आज प्रत्येक देश अपने पृथक् अस्तित्व को लेकर प्रतीक चिन्ह के रूप में अलग-अलग झण्डों का उपयोग करता है, संस्थाएँ विभिन्न प्रकार के मोनोग्राम का उपयोग करती हैं, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति भीड़ में अपने अस्तित्व को पृथक् बनाये रखने का प्रयास करता है। ऐसे ही दृष्टिकोण और चिंतन से यदि हम अपने धर्म, संस्कृति और गुरुओं के अस्तित्व पर विचार करें, तो जहाँ जैनधर्म अनादिनिधन हैं, वहीं उसकी अनादिनिधन परम्पराएँ भी आज इस धरती पर सतत अपने अस्तित्व के साथ विद्यमान हैं। इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने इस काल में जैनधर्म का प्रवर्तन किया। जैनधर्म के अिंहसामयी सिद्धान्तों के साथ जहाँ सर्वप्रथम उन्होंने प्रजा पर न्याय नीति के साथ शासन किया, वहीं समस्त राजपाट का त्याग करने के उपरांत उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर इस धरा पर मुनियों द्वारा आहार ग्रहण करने की चर्या और श्रावकों द्वारा आहारदान की परम्परा का प्रादुर्भाव किया। बात परम्पराओं के अस्तित्व की है। शायद यही कारण रहा होगा कि जब अतुल्य बल के धारी भगवान ऋषभदेव ने ६ महीने तक लगातार उपवास करते हुए तपस्या की पुन: मुनियों की शुद्ध आहार परम्परा और पड़गाहन विधि के संरक्षण हेतु उन्होंने स्वयं आहारचर्या के लिए ६ महीने तक भ्रमण किया। अंततोगत्वा हस्तिनापुर की धरा पर राजा श्रेयांस द्वारा जातिस्मरण होने से उन्हें इक्षुरस का आहार प्राप्त हुआ। भगवान ऋषभदेव ने मुनि अवस्था में यह प्रयास परम्पराओं को जीवंत रखने के लिए किया। तभी से युग बीत गये, चौबीस तीर्थंकरों ने इस धरती पर अवतार लिया, लगातार भगवान महावीर पर्यंत जैनेश्वरी दीक्षा, मुनियों की आहार चर्या आदि परम्पराएँ जीवित रहीं और भगवान महावीर के उपरांत आज तक लगभग २६०० वर्षों के काल में वे समस्त परम्पराएँ विद्यमान हैं। वर्तमान में दिगम्बर जैन मुनियो द्वारा मयूर पंख की पिच्छिका और कमण्डलु को ग्रहण किया जाना वह अनादि परम्परा है, जिससे दिगम्बर जैन मुनियों की सदैव पहचान रही है। ये दोनों ही उपकरण ऐसे हैं, जिनसे दिगम्बर जैन मुनियों की पहचान होती है तथा वे मुनिगण अपनी चर्या में इन दोनों ही उपकरणों का उपयोग करके अपनी साधना को प्रखर करते हैं। यूँ तो मुनियों के २८ मूलगुण शास्त्रों में कहे गये हैं, लेकिन प्राचीन शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर जैन मुनियों के बाह्य चिन्हों में आचेलक्य, लोंच, शरीर संस्कारहीनता और मयूर पिच्छिका ये चार माने गये हैं१। आइये मयूर पिच्छिका आदि साधुओं के इन चार महत्वपूर्ण बाह्य चिन्हों पर आगमोक्त कथनों के आधार पर एक दृष्टिपात करते हैं-
आचेलक्य –
चेल-वस्त्रादि परिग्रह का त्याग करना। यहाँ चेल शब्द उपलक्षण मात्र है अत: वस्त्र के साथ खेत, घर, धन, धान्यादि सम्पूर्ण परिग्रहों का त्याग करना विवक्षित है। यह नग्नता ही निर्र्गंरथता है और यह उत्सर्ग लिंग है। निग्र्रंथ अवस्था धारण किये बिना मुक्ति असंभव है। वस्त्र, चर्म, वल्कल, पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण आभरण आदि धारण नहीं करना ही अचेलकता है। यह अचेलकत्व व्रत जगत् में पूज्य है और अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण है।
लोंच –
स्नान और केशों का संस्कार आदि न करने से उसमें जूँ आदि उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी और मूँछ के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। यह प्रदक्षिणा‘प्रदक्षिणावर्त: केशश्मश्रुविषय: हस्तांगुलीभिरेव संपाद्य:।’ -मूलाराधना टी., पृ. २२४। वर्त रूप से अर्थात् दाहिने बाजू से आरंभ कर बायें तरफ आवर्त से किया जाता है। ‘‘दो मास के अन्दर अथवा पूरे दो मास होने पर लोंच करना उत्कृष्ट है। तीन मास के बीत जाने पर अथवा पूरे नहीं भी होने पर अथवा पूरे तीन मास होने पर केशलोंच करना मध्यम है। चार मास पूर्ण होने पर अथवा अपूर्ण रहने पर लोंच करना जघन्य है किन्तु चार महीने के ऊपर नहीं नहीं होना चाहिएद्वयोर्मासयोरतिक्रान्तयो: सतोर्वा। त्रिषु मासेषु अतिक्रांतेष्वनति-क्रान्तेषु सत्सु वा। चतुर्षु मासेषु पूर्णेष्वपूर्णेषु वा नाधिकेषु।’ -मूलाचार टी., पृ. ३६। ।’’ उपवासपूर्वक ही लोंच करना होता है। पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन ही लोंच करना चाहिए अथवा बिना प्रतिक्रमण के दिन भी लोंच किया जा सकता है। पुन: लोंच करके प्रतिक्रमण करना चाहिएलोचप्रतिक्रमण’ दैवसिक प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत हो जाता है। ऐसा प्रतिक्रमण के प्रकरण में कहा गया है। । दैन्यवृत्ति, याचना, परिग्रह और तिरस्कार आदि दोषों से बचने के लिए यह केशलोंच क्रिया है। यह भी एक मूलगुण है। ‘लोंच के समय मौन रखना चाहिए।’
व्युत्सृष्टशरीरता –
शरीर से ममत्व का त्याग करना। इसमें मुनिगण जलस्नपन, शरीर को उबटन, तैल आदि लगाकर अभ्यंग स्नान, नखों का, केशों का, दाढ़ी मूँछों का संस्कार, दंत, ओष्ठ आदि का संस्कार नहीं करते हैं। सुगंधित कस्तूरी आदि से, पुष्प माला आदि से शरीर को नहीं सजाते हैं। इस प्रकार शरीर संस्कार स्नान आदि नहीं करने पर वे मुनि अत्यंत रुक्ष, मलिन शरीर के धारी होने पर भी ब्रह्मचर्य से पवित्र होने से पूज्य होते हैं। चूँकि अस्नान व्रत भी एक मूलगुण हैं। प्रतिलेखन – जिससे प्रतिलेखन-शोधन या संमार्जन किया जाये वह प्रतिलेखन है। यहाँ मयूर के पंखों की पिच्छिका को प्रतिलेखन कहते हैं।
कार्तिक मत्वेति कार्तिके मासि कार्यं सत्प्रतिलेखनं।
स्वयं पतितपिच्छानां लिंगं चिन्हं च योगिभि:।।
-मूलाचार प्रदीप, पृ. ३३१।
‘कार्तिक मास में मयूरों के पंख स्वयं गिरते हैं’। -मूलाचार, पृ. ४४२। मास में स्वयं ही मयूर अपने पंखों को छोड़ देते हैं उन्हें ही ग्रहण कर यह बनाई जाती है। दीक्षा के समय आचार्य इस संयम के उपकरणरूप पिच्छिका को जीव दया पालन हेतु शिष्यों को देते हैं। आजकल कार्तिक मास में संघ में ये पिच्छिकाएँ प्राय: मुनि-आर्यिकाओं अथवा श्रावकों द्वारा बनाई जाती हैं पुन: आचार्य चातुर्मास समाप्ति पर चतुर्विध संघ के समक्ष स्वयं नूतन पिच्छिका ग्रहण करके सभी शिष्यों को नूतन पिच्छिका देते हैं। इसमें पाँच गुण होते हैं-धूलि को ग्रहण नहीं करना, पसीने से मलिन नहीं होना, मृदुता, सुकुमारता और
लघुतारजसेदाणमगहणं मद्दवसुकुमालदा लहुत्तं च।
जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसंति।।१९।।
-मूलाचार, पृ. ४४०, मूलाराधना पृ. ३३६। ।
यदि यह धूलि को ग्रहण करे तो इससे पसीने सहित का परिमार्र्जन नहीं बनेगा या सचित्त से अचित्त, अचित्त से सचित्त धूलि के परिमार्जन में दूषण आयेगा। यह पसीने को ग्रहण करे तो पुन: पुस्तक आदि का परिमार्जन नहीं बनेगा। इसलिए धूलि और रज को ग्रहण न करने से सदैव सभी वस्तु का प्रतिलेखन बन जाता है। इसका स्पर्श बहुत ही कोमल है। नेत्र में घुमाने पर भी बाधा नहीं होती है। सुकुमार-नमन शील है, झुक जाती है अन्यथा कठोर होने से इससे जीवों को बाधा हो सकती है और लघु है-हल्की है। प्रतिलेखन का कार्य-‘‘ईर्यापथ से गमन करने में यदि त्रसजीव बहुत हैं तो उन्हें पिच्छी से दूर किया जाता है। क्षेत्र या धूलि का रंग बदलने पर या धूप से छाया में और छाया से धूप में जाते समय साधु अपने सर्वांग को पिच्छी से परिमार्जित करके पैर की धूलि को पिच्छी से हटाकर आगे बढ़ते हैं। इसी प्रकार पुस्तक, कमण्डलु आदि के ग्रहण करने में, रखने में, मलमूत्रादि विसर्जन के स्थान में, खड़े होने में, बैठने में, सोने में, सीधे सोने में, करवट बदलने में, हाथ पैर आदि फैलाने में, उनके संकोचने में, शरीर आदि के स्पर्श करने में, अन्य भी किन्हीं कार्यों में साधु सावधान होते हुए अपनी पिच्छिका से परिमार्जन कर त्रस आदि जीवों की रक्षा करते हैं। श्री कुन्दकुन्द स्वामी भी कह रहे हैं- ‘जो द्वीन्द्रिय आदि प्राणी सूक्ष्म हैं वे चर्म चक्षु से नहीं दिखते हैं। इसीलिए जीवदया हेतु पिच्छी धारण करना चाहिए। मलमूत्र विसर्जन करना, रात्रि में सोया हुआ साधु जब उठकर बैठता है और पुन: सोता है, करवट बदलता है, हाथ पैर फैलाता है, इत्यादि कार्यों में यदि पिच्छी से परिमार्जन किये बिना ये क्रियाएँ करता है, तो नियम से जीव हिंसा होती है। नेत्र मे घुमाने पर भी इससे पीड़ा न होने से यह प्रतिलेखन सूक्ष्मत्वादि गुणयुक्त लघु पिच्छिका ग्रहण करना चाहिए। खड़े होने में, चलने आदि क्रियाओं में इस प्रतिलेखन से शोधन किया जाता है इसलिए स्वपक्ष में जैन मुनियों के चिन्ह में यह एक विशेष चिन्ह है
सुहुमा संति पाणा खु दुप्पेक्खा मंसचक्खुणा।
तम्हा जीवदयट्ठाय धारये पडिलेहणं।।२०।।
उच्चारं पस्सवणं णिसि सुत्तो उट्ठिदो दु काऊण।
अप्पडिलिहिय सुवंतो जीववहं कुणदि णियदं तु।।२२।।
ण य होदि णयणपीडा अच्छिं वि भमाडिदे हु पडिलेहे।
तो सुहुमादी लहुओ पडिलेहो होदि कायव्वो।।२३।।
ठाणे चक्कमणादाणे णिक्खेवे समयआसणपयत्ते।
पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होई सयपक्खे।।२४।।
ठाणणिसिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं।
दसकत्तरिठाणगदं णिप्पिच्छे णत्थि णिव्वाणं।।२५।।
-मूलाचार, पृ ४४१, ४२।।’’ ‘‘
जो मुनि अपने पास पिच्छी नहीं रखते हैं वे उपर्युक्त क्रियाओं में जीवों के घात से नहीं बच सकते हैं अत: उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अन्यत्र भी कहा है-‘‘कोई साधु बिना पिच्छी सात कदम गमन करे तो एक कायोत्सर्ग से शुद्ध होता है। यदि एक कोश गमन करे तो एक उपवास से शुद्ध होता है तथा आगे दूना-दूना प्रायश्चित्त है
सप्तपादेषु निष्पिच्छ: कायोत्सर्गाद्विशुद्ध्यति।
गव्यूतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते।।४४।।
-प्रायश्चित्त चूलिका ।’’
यह पिच्छी जिनमुद्रा का चिन्ह है, मुद्रा ही सर्वत्र मान्य होती है और मुद्रा रहित मनुष्य मान्य नहीं होता है
मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यात् निर्मुद्रो नैव मन्यते।।’
-नीतिसार।
साधु सामायिक, वंदना, चतुर्विंशतिस्तव आदि के समय, भगवान को नमस्कार करते समय और गुरुओं को नमस्कार करते समय दोनों हाथों में पिच्छी को लेकर अंजुलि जोड़कर अर्थात् पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर वंदना आदि करते हैं
पडिलिहियअंजलिकरो उवछुत्तो उट्ठिऊण एयमणो।
अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामायियं भिक्खू।।३९।।
-मूलाचार, पृ. ४१६।।’
इस प्रकार से पिच्छिका के गुण और कार्य बताये हैं। विशेषरूप से वर्तमान में सरकार द्वारा मयूर पंख के उपयोग पर पाबंदी की बात आई है। यद्यपि ऐसा ज्ञात हुआ है कि धार्मिक आस्थाओं के अन्तर्गत मयूर पंख के उपयोग पर प्रतिबंधन को हटा लिया गया है, फिर भी समाज को सदैव सजग एवं सावधान रहकर आने वाली किसी भी विपरीत परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मूलाचार, मूलाराधना, नीतिसार आदि प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथों के आधार पर दिगम्बर मुनियों को मयूर पंख की पिच्छिका रखना सर्वथा अनिवार्य है। मयूर पंख की पिच्छी साधु का बाह्य चिन्ह होने के साथ उनकी शुद्ध क्रियाओं के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है अत: हमें अपने साधुओं की चर्या में कोई बाधा न आने पाए, ऐसे प्रयासों के लिए सदैव आगे आकर तत्पर रहना आवश्यक है। समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं एवं समस्त श्रावक वर्ग की धर्म, संस्कृति आदि के प्रति चेतना और जागृति ही वर्तमान समय में हमारी परम्पराओं के अस्तित्व को सुरक्षित रखने में कारगर सिद्ध हो सकती है।