श्रीसिद्धभक्ति
अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव-समेतं श्रीसिद्धभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्।
(९ बार णमोकार )
सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं।
अगुरुलहु-मव्वावाहं, अ_गुणा होंति सिद्धाणं॥ १॥
तवसिद्धे, णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे, चरित्त-सिद्धे य।
णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ २॥
अथ = आरंभ। अब,
अहं = मैं।
पूर्वाह्निक = दिन के प्रथम भाग में।
आपराह्निक = तीसरे पहर में।
आचार्य - आचार्य।
वंदनायां = वंदना क्रिया में।
प्रतिष्ठापन = गुरु की स्थापना / हृदय में धारण करना।
पूर्वाचार्य- पूर्व आचार्यों के। अनुक्रमेण अनुक्रम के / अनुसार। श्री सिद्ध = श्री सिद्ध। भक्ति = भक्ति संबंधी। कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग '27 श्वासोच्छवास में'। करोमि = करता हूँ। सकल कर्म संपूर्ण कर्म। क्षयार्थ = नष्ट करने के लिए। भाव = उपयोग के पूर्वक। पूजा अर्चना, भक्ति। वंदना = 24 तीर्थंकरों का गुणगान । स्तव स्तुति (पार्श्वनाथादि)। समेतं = पूर्वक / सहित ।
भावार्थ: दिन के प्रथम (या अंतिम) भाग में आचार्य वंदना क्रिया में गुरु को हृदय में धारण करके पूर्व आचार्यों के अनुक्रम से श्री सिद्ध भक्ति के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ।
सम्मत्त-नाना = पूर्णता, ज्ञान। दंसन-वीर्य = दृष्टि वीर्य। सुहम् तहेव = उसी प्रकार सूक्ष्मता। विसर्जन तो विसर्जन है. अगुरुलघु = अगुरुलघुत्व' तथा 'अव्ववहम् अबाधित है। अत्तगुण = ये आठ गुण। सिद्धानं होति = सिद्धों में से हैं। तवसिद्धे जो तपस्या में निपुण हैं। नयसिद्धे = निर्णय में परिपूर्ण। संयमं में संजमसिद्धे सिद्धे। चरित्रं में चरित्तसिद्धे सिद्धे। या नानम्मि और ज्ञान में परिपूर्ण। या दंसनम्मि एवं दर्शन में पारंगत। सिद्धे = ये सभी सिद्ध। सरसा ने सिर झुका लिया. नमास्मि = नमस्कार।
इच्छामि भंते। सिद्ध-भत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्म -णाण-सम्म-दंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, अ_विह-कम्म-विप्पमुक्काणं-अ_गुण-संपण्णाणं उड्ढलोय- मत्थयम्मि पइ_ियाणं तव-सिद्धाणं, णय-सिद्धाणं, संजम-सिद्धाणं,चरित्त-सिद्धाणं अतीदा-णागद-व_माण-कालत्तय-सिद्धाणं सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि, णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहिमरणं जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं।
श्रुत भक्ति
अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं,
भाव-पूजा-वन्दनास्तव-समेतं श्रीश्रुतभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (९ बार णमोकार)
कोटिशतं द्वादश चैव कोट्यो, लक्षाण्यशीतिस्त्र््यऽधिकानि चैव।
पञ्चाश-दष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छुतं पञ्चपदं नमामि॥ १॥
अरहंत-भासियत्थं-गणहर-देवेहिं गंथियं सम्मं
पणमामि भत्ति-जुत्तो, सुद-णाणमहोवहिं सिरसा॥ २॥
इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउसग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंग-पइण्णय-पाहुडय-परियम्म-सुत्त पढमाणु-ओग-पुव्वगय-चूलिया चेव-सुत्तत्थय-थुइ-धम्म-कहाइयं णिच्च-कालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहि-मरणं जिणगुण-संपत्ति होउ-मज्झं।
आचार्य भक्ति
अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना- क्रियायां, पूर्वाचार्यानुक्रमेण,
सकलकर्मक्षयार्थं,भाव-पूजा-वन्दना स्तव-समेतं श्रीआचार्यभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (९ बार णमोकार )
श्रुतजलधिपारगेभ्य:,स्व-पर-मतविभावना पटुमतिभ्य:।
सुचरित-तपोनिधिभ्यो, नमो गुरुभ्यो-गुण-गुरुभ्य:॥ १॥
छत्तीस-गुण-समग्गे, पञ्च-विहाचार-करण-संदरिसे।
सिस्सा-णुग्गह-कुसले, धम्मा-इरिये सदा वंदे॥ २॥
गुरु-भत्ति-संजमेण य, तरंति संसार-सायरं घोरम्।
छिण्णंति अ_कम्मं, जम्मण-मरणं ण पावेंति॥ ३॥
ये नित्यं-व्रत-मन्त्र-होम-निरता, ध्यानाग्नि-होत्राकुला:।
षट्कर्माभिरतास्-तपोधनधना:,साधु-क्रिया: साधव:॥४॥
शील-प्रावरणा-गुण-प्रहरणाश्-चन्द्रार्क-तेजोऽधिका:।
मोक्ष-द्वार-कपाट-पाटन-भटा:, प्रीणन्तु मां साधव:॥ ५॥
गुरव: पान्तु नो नित्यं ज्ञान-दर्शन-नायका:।
चारित्रार्णव गम्भीरा मोक्ष मार्गोपदेशका:॥ ६॥
इच्छामि भंते! आइरियभत्तिकाउसग्गो कओ, तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, पंंचविहाचाराणं, आइरियाणं आयारादि-सुद-णाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, ति-रयण-गुण-पालण-रयाणं सव्वसाहूणं, णिच्च-कालं, अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्ख-क्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं-समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मञ्झं।
(नोट- सुबह १८ बार एवं संध्या आचार्य वंदना में ३६ बार णमोकार मंत्र पढ़ें)
विद्यासागर-विश्ववंद्य-श्रमणं, भक्त्या सदा संस्तुवे,
सर्वोच्चं यमिनं विनम्य परमं, सर्वार्थसिद्धिप्रदम्।
ज्ञानध्यानतपोभिरक्त -मुनिपं, विश्वस्य विश्वाश्रयं,
साकारं श्रमणं विशालहृदयं, सत्यं शिवं सुन्दरम्॥